Special Story : कब तक क्षुद्र राजनीति की भेंट चढ़ते रहेंगे आइएएस-आइपीएस अफसरान ?

धनबाद : विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में आइएएस-आइपीएस जैसे आफिसर, जनता के प्रतिनिधियों द्वारा बराबर दमित-शोषित होते रहते हैं.

अपने मुल्क में सिविल सेवक हमेशा से ही कुत्सित राजनीति का शिकार होते आए हैं, जिस कारण उन्हें खुलकर कार्य करने में कई परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है.

यह कैसी विडंबना है कि एशिया की सर्वाधिक प्रतिष्ठित एवं कठिन परीक्षा माने जाने वाली सिविल सेवा की परीक्षा पास करके सरकारी सेवा में आने वालों को नन-मैट्रिक नेताओं तक के रहमो-करम पर रहना होता है.

अन्यथा, ऐसे नेता उन्हें अपना शिकार बनाने में देर नहीं लगाते. नेता अपने मनमुताबिक आइएएस-आइपीएस के साथ सलूक करते हैं.

अपने स्वार्थ को ठेस पहुंचते देख कोई नेता उनको अपनी पैरवी और पहुंच से उच्च अधिकारियों के सामने जलील करवा देते हैं, तो कोई सत्ता का बेजा लाभ उठाते हुए सिविल सेवकों को स्थानांतरित करवा देते हैं.

कुछ जनप्रतिनिधि तो ऐसे भी हैं, जो जनता के बीच जनकल्याण के काम न होने का ठीकरा नौकरशाहों पर ही फोड़ देते हैं.

साथ ही, उस काम के प्रति अपनी प्रबल इच्छाशक्ति दिखाते हुए संबंधित विभाग के आइएएस-आइपीएस को ही दोषी ठहरा  देते हैं.

अक्सर मीडिया में इस तरह की खबरें आती ही रहती हैं. कहीं-कहीं तो सिविल सेवकों से राजनेता अपने जूते-चप्पल तक को खुलवाते-पहनवाते दिखाई पड़ जाते हैं.

यह राजनीति के झंडाबरदारों द्वारा आइएएस-आइपीएस का उत्पीड़न करना नहीं है ? कुछ जगहों पर तो घोर मानसिक यंत्रणा और राजनीतिक दवाब की वजहों से ऐसे पदाधिकारी, खुदकुशी तक कर लेते हैं. कर्नाटक कैडर के डी. के. रवि इसके उदाहरण हैं.

हरियाणा कैडर के अशोक खेमका (1991 बैच), उत्तर प्रदेश कैडर की दुर्गा नागपाल (2010 बैच), सूर्य प्रताप सिंह (1982 बैच), प्रशान्त शर्मा (2011 बैच) जैसे लोग सिविल सेवकों के साथ हुए ‘पॉलिटिकली इल ट्रीटमेंट’ के ज्वलंत उदाहरण हैं. अशोक खेमका को उनके 23 साल के कैरियर में 45 बार ट्रांसफर किया गया. दुर्गा नागपाल को अपने हक के लिए लड़ना पड़ा.

प्रशान्त शर्मा को जान मारने की धमकी मिली, तो सूर्य प्रताप सिंह भी प्रताड़ना के शिकार बने.

कुछ इसी तरह की  स्थिति झारखंड में भी है. झारखंड में कर्मयोगी आइएएस-आइपीएस अफसरों के लिए काम करना कंटकाकीर्ण पथ पर चलने के समान है.

राजनीतिक हस्तक्षेप एवं दवाब से तंग आकर सिविल सेवा में आए पदाधिकारी या तो झारखंड कैडर लेना नहीं चाहते हैं अथवा आते भी हैं तो किसी तरह केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर चले जाना चाहते हैं.

सेंट्रल डेप्युटेशन पर जाने वाले लौटना नहीं चाहते हैं. डॉ. डी. एन. गौतम, एके सिंह, राजीव रंजन, शिवेन्दु, अनिल पाल्टा, पंकज दराद जैसे आइएएस-आइपीएस इसके नजीर हैं.

खनिज प्रदेश में, नेता अपनी स्वार्थसिद्धि की वेदी पर सिविल सेवकों को चढ़ा देते हैं.

धनबाद में पदस्थापित आइपीएस अधिकारी सुमन गुप्ता एवं राकेश बंसल भी इस फेहरिश्त में शामिल हो गये हैं.

अवैध-धंधेबाजों के लिए आतंक का पर्याय बन चुकीं श्रीमती गुप्ता को पदोन्नति देकर रास्ते से हटवाया गया, तो श्री बंसल को एक साल का भी कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया गया.

जबकि नियम यह कहता है कि कैबिनेट के फैसले के अनुसार, कम से कम उन्हें दो साल तक पद पर बने रहना देना चाहिए. कुल आबादी में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हिस्सेदारी बमुश्किल 10 प्रतिशत ही होगी, जिनकी इच्छापूर्ति के लिए 90 प्रतिशत जनता की भावनाओं को रौंदते हुए राकेश बंसल को एसपी (अभियान) बनाकर भेज दिया गया.

क्या यही लोकतंत्र है ?

Web Title : SPECIAL STORY : HOW LONG IAS IPS FALL IN POLITICS GAME