ए. के. रायः .....तुम्ही सो गए दास्तां कहते-कहते

राजनीति के संत कहे और माने जाने वाले अखंड बिहार की राजनीति के मजबूत स्तंभ एके राय आखिरकार मौत से हार ही गए.

उर्दू में साकिब लखनवी का एक शेर है कि- बड़े गौर से सुन रहा था जमाना सारा, तुम्ही सो गए दास्ताँ कहते कहते. ये पंक्तियाँ राय दा पर हूबहू लागू होती हैं.

ए. के. राय का जन्म मौजूदा बांग्लादेश के राजशाही जिले के सपुरा गांव में 15 जून, 1935 को हुआ था.

उन्होंने दसवीं तक की शिक्षा गांव के ही विद्यालय से पूरी की. उसके बाद बेलूर स्थित रामकृष्ण मिशन स्कूल से विज्ञान में इंटरमीडिएट की शिक्षा ग्रहण की.

कोलकाता के प्रतिष्ठित सुरेन्द्र नाथ काॅलेज से स्नातक की उपाधि ली. कोलकाता विश्वविद्यालय से 1959 में रसायन अभियंत्रण में एमएससी करने के बाद उन्होंने दो साल तक कोलकाता में काम किया था और 1961 में सिंदरी के पीडीआइएल में नौकरी प्राप्त की थी.

राय, 9 अगस्त, 1966 ई. को हुए ‘बिहार बंद’ में सक्रियतापूर्वक भूमिका निभाने में गिरफ्तार कर लिए गए और नौकरी से भी हाथ धो बैठे.

उसके बाद तो उनकी लोकप्रियता और तेजी से बढ़ी. जिस दृढ़ता व रफ्तार से वे काम करने लगे, ऐसा लगा कि उन्हें नौकरी से नहीं, बल्कि जेल से छुटकारा मिला हो.

सन् 1967 ई. में माकपा के टिकट पर सिंदरी के वे पहले विधायक बने. उसके बाद सन् 1969 ई. के मध्यावधि चुनाव में भी दूसरी बार जीतने में कामयाब रहे. सन् 1972 ई. में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (एम) से वैचारिक मतभेद होने की वजह से, वे किसान संग्राम समिति के बैनर तले चुनाव लड़े और लगातार तीसरी बार विधायक बने.

तीन-तीन बार विधायक बनने और लगातार जनता के मुद्दों पर संघर्ष करने वाले राय साहब की छवि पूरे धनबाद में एक बड़े नेता की बन गई थी.

जनता अब चाह रही थी कि वे धनबाद लोकसभा क्षेत्र का नेतृत्व करें. 1977 के लोस चुनाव की जब अधिसूचना जारी हुई, उस समय एके राय हजारीबाग जेल में बंद थे. 1977 में, उन्हें जनता पार्टी की तरफ से चुनाव लड़ने का ऑफर मिला था.

लेकिन, उन्होंने जनता पार्टी के टिकट के बजाय, खुद की पार्टी मासस की ओर से चुनाव में उतरने का फैसला लिया. तूफानी चुनाव प्रचार, कांग्रेस के विरोध में हवा और एके राय का धनबाद की राजनीति में बढ़ते कद ने उन्हें शानदार जीत दिला दी.  

उसके बाद राय साहब 1980 में और 1989 में धनबाद के सांसद बने. तब से लेकर अबतक राय दा की राजनीतिक यात्रा ऐसी सादगीपूर्ण और निष्कलुष रही कि वे एक जीती-जागती किंवदंती बन गए थे.

आजीवन सांसद और विधायक को मिलने वाली पेंशन न लेना, अविवाहित रहना, जनप्रतिनिधि को मिलने वाली सुविधाएं स्वीकार न करना जैसे कठोर फैसले के कारण राय साहब भले ही आजीवन तंगहाली में रहे हों, लेकिन विचारों के धनी तो वे हमेशा बने रहे.

जीवन भर शोषितों-पीड़ितों के लिए संघर्ष करने वाले राय दा को इस बार मौत ने शिकस्त दे दी. राय दा के यह व्यक्तित्व का ही कमाल था कि वैचारिक तौर पर धुर विरोधी रहे नेतागण भी उन्हें देखने को सेंट्रल अस्पताल पहुंचते रहे.  

सिटी लाइव परिवार की ओर से इस महान नेता को आखिरी लाल सलाम!