कव्वाली का पितामाह नुसरत फ़तेह अली खान का जन्मदिन आज, सूफी गानों के थे बादशाह

वो जैसे ही गाना शुरु करते. समा बंध जाता. चारों तरफ एक सुगंध सी फैल जाती. आवाज में ऐसी कसक थी जो रूह में भी एक ठनक पैदा कर दे. उनका मस्त होकर गाना. झूमना. रम जाना, उनकी सूफियाना कव्वाली किसी तीसरी ही दुनिया में ले जाती थी. जहां शांति थी. प्यार था. अपनापन था. आवाज और तान के जादूगर बचपन में गायकी नहीं बल्कि तबले का अभ्यास करते थे. पाकिस्तान बनने के लगभग साल भर बाद नुसरत का जन्म पंजाब के लायलपुर (फैसलाबाद) में 13 अक्टूबर 1948 को कव्वालों के घर में हुआ.  

नुसरत जिस घराने से थे, वहां कव्वाली गाना कोई नई बात नहीं थी. बावजूद इसके इनके पिता उस्ताद फतह अली खां साहब नहीं चाहते थे कि उनका बेटा कव्वाल बनें. क्योंकि कव्वाल की उस वक्त समाज में कोई इज्जत नहीं थी. लेकिन खुदा को कुछ और ही मंजूर था. और अच्छा ही हुआ ही जो नुसरत ने अपने पिता की बात नहीं मानी वरना एक महान गायक की दिलकश गायकी से हम वंचित रह जाते. लंदन 1985 में वर्ल्ड ऑफ म्यूजिक आर्ट एंड डांस फेस्टिवल में नुसरत ने जो एकबार गाया. बस वही, कमाल हो गया. जिसने भी सुना झूमने लगा. रोंगटे खड़े हो गए. ऐसी आवाज. ऐसा अंदाज किसी ने न पहले देखा था न सुना था. जो लोग पंजाबी -उर्दू जबान भी नहीं समझ पाते थे. वे भी उनकी आवाज के कायल हो गए.

संगम” के सबसे हिट गीत “अफरीन अफरीन” से. जावेद साहब ने क्या बोल लिखे हैं. अपनी धुन और गायिकी से नुसरत साहब ने इस गीत को ऐसी रवानगी दी है कि गीत ख़तम होने का बाद भी इसका नशा नहीं टूटता. “आफरीन-आफरीन” सूफी कलाम में एक बड़ा मुकाम रखती है.

1988 में जब पीटर गैब्रिएल हॉलीवुड फिल्म ‘लास्ट टेंपटेशन ऑफ क्राइस्ट’ का साउंडट्रैक बना रहे थे तो उन्होंने उस दृश्य के लिए नुसरत के अलाप का इस्तेमाल किया जिसमें ईसा मसीह सूली को लेकर आगे बढ़ते हैं. इस दर्द के लिए शायद नुसरत से बेहतर कोई नहीं हो सकता था.

पीटर गैब्रिएल ने उन्हें ब्रिटेन के स्टूडियो में रिहर्सल के लिए बुलाया लेकिन जब नुसरत ने रिहर्सल शुरू की तो उन्होंने इसे रोक दिया और कहा कि इसकी कोई जरूरत ही नहीं है.

इसके बाद तो नुसरत ने पीटर गैब्रिएल के संग मिलकर दुनिया के सामने पश्चिम और पूरब की जुगलबंदी पेश कर दी. सुरों के ऐसे तार छिड़े कि क्या ब्रिटेन क्या यूरोप, क्या जापान, क्या अमरीका पूरी दुनिया में नुसरत के प्रशंसकों की बाढ़ सी आ गई. पूर्व और पश्चिम के आलौकिक फ्यूजन में भी नुसरत ने अपना पंजाबीपन और सूफियाना अंदाज नहीं छोड़ा, न ही खुद से कोई छेड़-छाड़ की और फ्यूजन को एक नई परिभाषा दी.

भारत में भी नुसरत के गीत और कव्वालियां सिर चढ़ कर बोलने लगीं. ‘मेरा पिया घर आया’, ‘पिया रे-पिया रे’, ‘सानू एक पल चैन, ‘तेरे बिन’, ‘प्यार नहीं करना’, ‘साया भी जब साथ छोड़ जाये’, ‘सांसों की माला पे’ और न जाने ऐसे कितने गीत और कव्वालियां हैं, जो दुनिया भर का संगीत खुद में समेटे हुए हैं.

16 अगस्त 1997 को जब नुसरत साहब ने दुनिया-ए-फानी को अलविदा कहा, विश्व-संगीत में एक गहरा शोक छा गया. ऐसा लगा जैसे खुदा की आवाज ही चली गई हो. नुसरत साहेब को अगर कव्वाली का पितामाह कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी.


Web Title : TODAY IS THE BIRTHDAY OF KING OF SUFI SONGS NUSRAT FATEH ALI KHAN