नई दिल्ली : भूपेंद्र सिंह हुड्डा इकहत्तर साल के हैं. 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ. इसके ठीक एक महीने बाद 15 सितंबर 1947 को हुड्डा का जन्म हुआ. जाने-माने स्वतंत्रता सेनानी रणबीर सिंह हुड्डा के बेटे भूपेंद्र हुड्डा को अगस्त 2019 से पहले कभी नहीं लगा कि कश्मीर पर कांग्रेस गलती कर रही है. भूपेंद्र हुड्डा ने इससे पहले कभी नहीं कहा कि आजादी के वक्त से लेकर परिस्थितियां अब बदल चुकी हैं. पंडित नेहरू की नीतियां भी समय के साथ अप्रासंगिक हो सकती हैं. उन्हें बदलना पड़ सकता है. बीजेपी के चुनावी घोषणा पत्रों से लेकर उनके हर एजेंडे में 370 हटाने और राम मंदिर जैसे मुद्दे शीर्ष पर रहे. शायद ही कभी किसी कांग्रेसी नेता ने पार्टी की बैठकों में या केंद्रीय नेतृत्व को निजी तौर पर इनके समर्थन में सलाह दी. किसी बड़े नेता के मुंह से अब से पहले नहीं सुना गया कि कश्मीर से 370 हटाना सही रहेगा. अब कई नेता ऐसा कह रहे हैं. प्रियंका ने यही सवाल किया है. अचानक ये ज्ञान की प्राप्ति क्यों? लेकिन तभी एक सवाल पूरी कांग्रेस पार्टी से भी किया जाना चाहिए- कि उसके नेता अचानक ये पार्टी लाइन से बाहर जाने के लिए छटपटाने क्यों लगे?हरियाणा में विधानसभा चुनाव सिर पर है. आमचुनाव से पहले हुए उपचुनाम में रणदीप सुरजेवाला जींद में बुरी तरह हारे. फिर आया लोकसभा चुनाव. बीजेपी 10-0 के साथ क्लीन स्वीप कर गई. खंड-खंड में बंटी चौटालाओं की पार्टियों समेत कांग्रेस को समझ में आ गया कि उनके लिए फिलहाल हरियाणा के अंदर भी कुछ खास बचा नहीं है. इसी बीच अप्रत्याशित तेजी के साथ 370 हटाने का फैसला आ गया. कश्मीर में इस फैसले की प्रतिक्रिया समझने और आंकने में वक्त लगेगा. लेकिन जो एक बात सबको समझ में आ चुकी है वह यही कि बीजेपी सरकार के इस फैसले को देश के बहुसंख्यक लोगों का समर्थन साफ दिख रहा है. यही वजह है कि तमाम दलों के नेता पार्टी लाइन फांदकर इसके (अनुच्छेद 370 हटाने) समर्थन में उतर आए हैं. यही काम पहले जूनियर हुड्डा (दीपेंद्र) ने किया और अब भूपेंद्र हुड्डा ने. साथ में कई और कांग्रेसी और बीजेपी विरोधी दूसरे दलों के नेताओं ने भी. कांग्रेस के पास मुस्लिम महिलाओं के हितों की रक्षा का मौका 32 साल पहले आया था. धारा 125 के तहत तब शाहबानो के पक्ष में दिए गए फैसले को संसद के जरिये पलटवाने की ऐतिहासिक भूल कांग्रेस ने कर दी. एक वृद्ध और असहाय महिला (शाहबानो) अपनी लंबी लड़ाई खुद लड़कर इंसाफ हासिल कर चुकी थी, लेकिन एक पूरी सरकार उसके खिलाफ हो गई. देश की संसद को उसके खिलाफ खड़ा कर दिया गया. क्या ये कोई मामूली त्रासदी थी? जबकि तब ये मामला तीन तलाक को खारिज करने या उसे कानूनी रूप से गलत ठहराने का भी नहीं था. मामला सिर्फ गुजारा भत्ते का था. तीन तलाक को लेकर बीजेपी की राजनीतिक मंशा पर कई सवाल हैं. होने भी चाहिएं. लेकिन तीन तलाक देने वाले पतियों पर सख्ती को लेकर हाय-तौबा मचाने वाली कांग्रेस ने इससे पहले अनाप-शनाप तरीके से दिए जाने वाले तीन तलाक के मामलों पर रोक के लिए क्या किया? जब आप कुछ नहीं करेंगे, तो दूसरे के किए गए में रह गई गलतियों पर आपका रोना-पीटना अर्थहीन ही लगेगा. साथ ही, आपसे इत्तेफाक रखने वाले समर्थकों (लोगों और दलों) की संख्या भी कम होती जाएगी. यही हुआ भी. जेडीयू जैसे कुछ साथियों के वोटिंग से अलग रहने के बावजूद सरकार तीन तलाक बिल राज्यसभा में बड़े आराम से पास करा ले गई. एक राजनीतिक पार्टी के तमाम सामाजिक दायित्व भी होते हैं. पार्टियों से सिर्फ राजनीतिक नफा-नुकसान के पैमाने पर सोचने की उम्मीद नहीं की जाती. फिर भी कांग्रेस अगर मुस्लिम महिलाओं को एक बड़ी पीड़ा से निकालने और अपने जन्मकाल के समय ही अस्थायी बताए गए 370 पर कभी विचार करने की जरूरत नहीं समझी, तो ये उनकी नाकामी है. लेकिन यहीं पर सवाल है कि वोट के पैमाने पर ही उसे इसका क्या लाभ मिला? जिस मुस्लिम वोट बैंक के मुगालते में कांग्रेस अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाती रही, क्या वह मुस्लिम वोट बैंक आज उसके साथ है? कहीं ऐसा तो नहीं कि बदले दौर में किसी भी जातीय या धार्मिक समूहों के एक छोटे-से हिस्से को छोड़ कर, बहुसंख्यक लोग अपने वास्तविक और बुनियादी जरूरतों को ज्यादा तवज्जो देने लगे हैं?राम मंदिर पर मध्यस्थता की कोशिश फेल हो चुकी है. अब जो भी फैसला आएगा, देश की सर्वोच्च अदालत से आएगा. जाहिर है ऐसा कोई भी समाधान मध्यस्थता वाले समाधान से ज्यादा मजबूत और मान्य होगा. फैसला किसी के भी पक्ष में जाए, दूसरे पक्ष के पास विरोध का कोई मजबूत आधार नहीं होगा. ठीक इसी तरह से राजनीतिक पार्टियां भी अयोध्या विवाद पर अदालत के फैसले के बाद की लक्ष्मण रेखा को ध्यान में रखकर ही हाय-तौबा कर पाएंगी या जश्न मना सकेंगी. ऐसे में एक यक्ष प्रश्न है कि क्या अयोध्या विवाद पर फैसले केपार्टी लाइन तोड़ने में न 71 साल के भूपेंद्र हुड्डा की गलती है और न ही 41 साल के दीपेंद्र हुड्डा की. 88 साल के कर्ण सिंह भी गलत नहीं हैं और न ही सिंधिया, आरपीएन, जितिन की युवा जमात. इन पर ज्यादा-से-ज्यादा आप मौके के हिसाब से राय बदलने का आरोप लगा सकते हैं. लेकिन सवाल कांग्रेस पार्टी को खुद से करना है कि कहीं इन्हें राय इसलिए तो नहीं बदलनी पड़ी क्योंकि जड़वत हो रही कांग्रेस ने वक्त की जरूरतों के हिसाब से अपनी राय और अपनी नीतियां नहीं बदलीं? जिस वक्त आप बीजेपी पर मनमानी के साथ तीन तलाक और 370 पर एकतरफा फैसले लेने के आरोप लगाते हैं, उसी वक्त आपको ये भी देखना होगा कि इन दोनों मुद्दों पर आपकी पार्टी आंखें मूंदकर एक पक्ष में तो खड़ी नहीं हो गई?