जीने की राह : जब दूरी बनाए रखना जरूरी हो

अपनी मर्जी हो तो हम फोन या किताब में रमे हुए घंटों अकेले बिता देते हैं. पर जब ऐसा करना मजबूरी हो, तब बेचैन हो उठते हैं. अपनों से दूरी का विचार काटने को दौड़ता है. अकेले करेंगे क्या, सूझता ही नहीं. लेकिन, कई दफा थोड़ा दूरी बनाए रखने में ही अपनी और सबकी भलाई होती है. और तब दूरी भी केवल जगह की होती है, दिल की नहीं.

कोरोना वायरस के कारण कुछ शब्द चर्चा में हैं. ‘सोशल डिस्टेंसिंग’, ‘क्वारंटीन’, ‘सेल्फ आइसोलेशन. ’ अगर घर से बाहर हैं तो संक्रमण से बचने और बचाने के लिए दूसरों से दूरी बनाकर रखनी है और खुद के संक्रमित होने की जरा भी आशंका है तो कुछ समय के लिए अपनों से अलग रहना है. यही बात हमें बेचैन कर रही है. यूं हम लाख शिकायत करते रहते हैं कि अपने लिए समय नहीं मिलता. जी में आता है कि कुछ दिन के लिए सब छोड़कर अकेले रहें. पर, जब ऐसा करने की बारी आती है तो खुद को तैयार कर पाना मुश्किल हो जाता है.  

हालांकि यह सच है कि मस्त रहते हुए एकांत में जीने की सुविधा हर किसी के पास नहीं होती. ढीली जेब भी परेशान करती है और अच्छे सपोर्ट सिस्टम की कमी भी. पर सब कुछ सही हो तो भी ज्यादातर के लिए खुद के साथ रहना मुश्किल होता है. कारण कि जो प्यार हम दूसरों को करते हैं, खुद से नहीं करते. हम दूसरों को तो झेल लेते हैं, पर खुद को झेलना मुश्किल हो जाता है. हमारे भीतर उदासी और निराशा बढ़ने लगती है. यह भी है कि हम अपने साथ रहने के फायदे जानते ही नहीं.  

हेनरी डेविड थोरो महान अमेरिकी दार्शनिक हैं. सिविल डिस्ओबिडिएन्स यानी सविनय अवज्ञा उन्हीं का दिया हुआ शब्द है. गांधीजी और पूरी दुनिया उससे प्रभावित हुई थी. थोरो अपने शिखर पर अचानक मैसाच्युसेट्स के कॉन्कॉर्ड शहर को छोड़ कर वाल्डेन सरोवर के किनारे रहने चले गए थे. वह बनावटी शहरी जिंदगी छोड़ कर प्रकृति की छांव में कुछ वक्त गुजारना चाहते थे. एकांत में रहने का एक दर्शन दे रहे थे वह. उसी अनुभव पर उन्होंने ‘वॉल्डेन’ जैसी कालजयी किताब लिखी. उनका मानना था कि अपनी जिंदगी जीनी है तो शहर से दूर जाना चाहिए. अपने एकांत में जिए बिना जिंदगी अधूरी है.  

अकेले होने से डरते क्यों है? 

दरअसल, हम अकेलेपन और एकांत का अंतर नहीं समझते. अकेले होना, बाहरी कारणों से जुड़ा होता है. इसलिए डर और असुरक्षा पैदा कर सकता है. अकेलापन या अलग रहना मजबूरी हो सकता है. पर एकांत हम खुद चुनते हैं. वह हमें ताजगी और सुकून देता है. रचनात्मक बनाता है. इस बारे में ‘द किंग ऑफ अटोलिया’ की लेखिका मेगन डब्ल्यू टर्नर ने दिलचस्प बात कही है. वह कहती हैं कि निजता और आत्मनिर्भरता के ही दो अलग नाम हैं एकांत और अकेलापन. फिर हालात का कुछ नहीं पता. हमें कभी भी अकेले रहना पड़ सकता है. जब हम अकेले होने को सही अंदाज में लेना सीख लेते हैं तो पहले से और मजबूत होकर निकलते हैं.  

अकेले होने पर हम अपने पैरों पर खड़े होने की आदत डालते हैं. अपने काम खुद करने की कोशिश करते हैं. अपनी समस्याएं खुद सुलझाते हैं. अपने अधूरे और बिखरे हुए कामों को पूरा कर पाते हैं. हमारा खुद पर भरोसा बढ़ता है. इस तरह हमें एक दोस्त मिलता है, जो हम खुद होते हैं और जो 24 घंटे हमारे साथ रहता है. कई दफा दूरी होने पर ही दूसरों का महत्व समझ में आता है. साथ रहते हुए दूसरे जो हमारे लिए करते हैं, वह प्यार समझ आता है.  

घर में दरवाजे और खिड़कियों की बड़ी भूमिका होती है. पर हर समय न इन्हें खोलकर रखा सकता है और न बंद करके. यही हमारे साथ भी होता है. भीतर और बाहर से जुड़ने का सिलसिला चलता रहता है. कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मन एकांत ढूंढ़ता है, पर हम बाहर रहने को मजबूर होते हैं. कभी बाहर बने रहने के लिए पसंद का साथ ही नहीं मिलता. पर हालात से भागकर कुछ नहीं होता, हमें अपने साथ संतुलन बिठाना भी सीखना होता है. यह संतुलन ही हमें जीने का सही तरीका सिखाता है. जब प्यार दिल में होता है, तब एक अलग कमरे में रहकर भी हम सबसे जुडे़ रहते हैं. अपनों से ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए प्रेम से भर उठते हैं.

 


Web Title : WAY TO LIVE: WHEN IT IS NECESSARY TO MAINTAIN DISTANCE

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