चमकी बुखार का लीची से नहीं कोई नाता,विशेषज्ञों ने लीची में एईएस फैक्टर को किया खारिज

मुजफ्फरपुर : मुजफ्फरपुर में एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) के प्रकोप के लिए लीची को दोषी ठहराया जा रहा है. इसकी खेती और व्यवसाय को हतोत्साहित करने के लिए भ्रम की स्थिति पैदा की जा रही. विशेषज्ञ भी लीची में एईएस फैक्टर को खारिज करते हैं. उनका तर्क है कि मुजफ्फरपुर में लीची का इतिहास लगभग दो सौ साल पुराना है, जबकि एईएस 16-17 वर्षों से. ऐसे में लीची को दोषी ठहराना कतई उचित नहीं है.  

लीची के प्रमुख उत्पादक सतीश द्विवेदी कहते हैं कि जिले की 70 फीसदी लीची की राष्ट्रीय बाजार में खपत है. हर साल लागत और बाजार के अनुसार भाव तय होता है. इस बार भी ऐसा ही रहा. कहीं कोई गिरावट नहीं आई. हालांकि, इस बार विपरीत मौसम का, पैदावार पर असर पड़ा है. वे कहते हैं कि यहां से सभी बड़े शहरों में लीची भेजी जाती है. उन शहरों में कभी ये बीमारी नहीं फैली. गया जिले में भी इस बीमारी का प्रकोप है. वहां तो लीची नहीं होती, फिर.. . ?

राष्ट्रीय लीची अनुसंधान केंद्र के प्रधान वैज्ञानिक डॉ. एसडी पांडेय कहते हैं कि पूरे साल कोई नहीं बोलता. लीची की फसल तैयार होते ही लोगों को इसके दुर्गुण दिखने लगते हैं. कोई ये बताए कि कच्ची लीची और उसके बीज कौन खाता है. क्या दो-ढाई साल के बच्चे लीची खा सकते हैं? दरअसल, यह क्षेत्र विशेष का मामला है, जो प्रभावित हो रहा. इसमें लीची को दोष देना ठीक नहीं. शिशु रोग विशेषज्ञ व एसकेएमसीएच के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. जेपी मंडल, केजरीवाल अस्पताल के विभागाध्यक्ष और यह शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ राजीव कुमार, शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ बीएन तिवारी कहते हैं कि लीची से इस बीमारी का कोई संबंध नहीं है. यह बीमारी लीची के फल आने से दो-तीन माह पहले व फसल समाप्त होने के दो माह तक सामने आती है.

नेशनल रिसर्च में लीची बेदाग

राष्ट्रीय लीची अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. विशालनाथ भी कहते हैं कि नेशनल रिसर्च में लीची पूरी तरह सही निकली. इसमें बीमारी का कोई तत्व नहीं मिला है. इसे बदनाम नहीं किया जाना चाहिए. लीची को बदनाम करने की शुरुआत लंदन के एक मेडिकल जर्नल ´लेंसेट ग्लोबल हेल्थ´ में प्रकाशित शोध पत्र के साथ हुई. इसमें कहा गया है कि लीची में मिथाइल साइक्लोप्रोपाइल-ग्लाइसिन (एमपीसीजी) नामक तत्व पाया जाता है. शोध के अनुसार, लीची के बीज और अधपके लीची के सेवन से खून में शुगर लेवल एकाएक कम हो जाता है. तब यह मस्तिष्क को प्रभावित करता है. मरीज बेहोशी की हालत में चला जाता है. और मृत्यु हो जाती है.

जमैका के फल ´एक्की से की थी तुलना

बाद के वर्षों में वेल्लोर के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज से जुड़े वायरोलॉजिस्ट डॉ. टी जैकब जॉन ने वर्ष 2014 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में लिखा था कि जमैका में पाए जानेवाले फल ´एक्की´ और इसी प्रजाति यानी कुल की लीची के मध्य एक समरूप रोग का पता लगाया गया है. जमैका में इसे ´तीव्र मस्तिष्क विकृति´ (एक्यूट इंसिफ्लोपैथी) कहा जाता है. डॉ. जॉन ने स्पष्ट किया था कि यह बीमारी गैर-संक्रामक इंसेफ्लोपैथी और गैरविषाक्त संक्रामक पदार्थ इंसेफलाइटिस के कारण हुई थी. मुजफ्फरपुर में फैली बीमारी और एक्की के अध्ययन के बाद यह पाया गया कि जिन बच्चों ने शाम के समय भोजन नहीं किया और सुबह खाली पेट इन फलों का अधिक सेवन किया है, उनके रक्त में शर्करा की मात्रा कम होने तथा तीव्र मस्तिष्क विकृति होने के कारण सिरदर्द और कभी-कभी मृत्यु के मामले सामने आए हैं.

Web Title : BRIGHT FEVER HAS NOTHING TO DO WITH LYCHEE, EXPERTS DISMISS AES FACTOR IN LYCHEE