झारखंड के टैगोर थे आदिवासियों में बौद्धिक चेतना जगाने वाले डॉ रामदयाल मुंडा
डॉ मुंडा को ही श्रेय जाता है कि झारखंड के साहित्यकारों को अंग्रेजी और हिंदी के दायरे से बाहर निकलने में मदद की. उन्होंने साहित्यकारों को अपनी भाषा में रचनाशीलता को आगे बढ़ाने की ललक जगाई.
पद्मश्री डॉ रामदयाल मुंडा अपने आप में एक संस्था थे. जिन्होंने आदिवासियों के सांस्कृतिक उत्थान के लिए अपनी बौद्धिकता सिद्ध की और माटी के लिए आजीवन भर जज्बा रखा. यहीं, वजह है कि झारखंड के प्रसिद्ध डक्यूमेंट्री फिल्मकार मेघनाथ और बीजू टोप्पो ने डॉ मुंडा की जीवनी पर 2017 में वृत्तचित्र नाची से बाची बनाई. इसलिए मेघनाथ ने संबोधित किया कि डॉ रामदयाल मुंडा झारखंड के रविंद्र नाथ टैगोर थे. रामदयाल मुंडा अक्सर कहते थे कि जे नाची से बाची. आदिवासी सोच उनकी सोच में थी. यही वजह है कि ढोल-मांदर, नगाड़े और बांसुरी बजाते हुए मुंडा जी की छवि आज भी लोगों के जेहन में है.
मुंडा ऐसे शख्सियत थे, जिन्होंने जीवन के अंतिम क्षण तक लोक संगीत, लोक कलाकारों के लिए जीए और लोक पारंपरिक संगीत को अंतरराष्ट्रीय मंच तक ले गए. झारखंड की कला-संस्कृति व परंपरा को सोवियत संघ से लेकर आस्ट्रेलिया, अमेरिका तक ले गए. यहीं, वजह थी कि वर्ष 2007 संगीत नाटक अकादमी का सम्मान उनकी झोली में आया. जिससे पूरा झारखंड गौरविंत हुआ. अपनी माटी व राज्य के लिए निष्ठा को देखते हुए सर्वदलीय मत से 22 मार्च 2010 को उन्हें राज्यसभा तक सांसद बनकर पहुंचने का मौका मिला और इसके बाद पदमश्री सम्मान मिला.
डॉ मुंडा को ही श्रेय जाता है कि झारखंड के साहित्यकारों को अंग्रेजी और हिंदी के दायरे से बाहर निकलने में मदद की. उन्होंने साहित्यकारों को अपनी भाषा में रचनाशीलता को आगे बढ़ाने की ललक जगाई. वे खुद भी नागपुरी, मुंडारी, पंच परगनिया में लेखन कार्य किए. इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय पटल में एक बुद्धिजीवी के रूप में अपनी भाषा के प्रति सम्मान देखकर कई लोग क्रमवार सामने आने लगे.
एक तरह से डॉ मुंडा ने ही झारखंड में देशज परंपरा की नींव रखने में अहम भूमिका निर्वाहन की. साथ ही अखड़ा संस्कृति की पुजोर वकालत की. इसके अलावा झारखंड के पर्व-त्योहार सरहुल को लोकप्रिय बनाने में अहम योगदान रहा. साथ ही झारखंड इंडीजिनियस पीपुल्स फोरम के माध्यम से पहली बार विश्व आदिवासी दिवस मनाने की परंपरा की नींव भी झारखंड में रखी गई. उनके द्वारा नागपुरी, मुंडारी, हिंदी, अंग्रेजी, भारतीय आदिवासी भाषा, साहित्य, समाज, धर्म-संस्कृति, विश्व आदिवासी आंदोलन और झारखंड आंदोलन पर उनकी 10 से अधिक पुस्तके व 50 से ज्यादा निबंधन विभिन्न पत्र-पत्रकाओं में प्रकाशित हुए.