आंतरिक उपनिवेशवाद की अवधारणा के जनक थे कॉमरेड ए.के.राय

धनबाद (मनोज मिश्रा) :

जय हो´ जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को,

जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को.

किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल,

सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल.

आंतरिक उपनिवेशवाद की अवधारणा के जनक, मार्क्सवादी चिंतक, राजनीति के संत कॉमरेड अरुण कुमार राय उर्फ़ ए के राय उर्फ़ राय दा को हिन्दी के महान कवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित प्रसिद्ध खण्डकाव्य रश्मिरथी, कि इन पंक्तियों के साथ ´लाल सलाम´
कॉमरेड राय दा आज के पतनशील राजनीति के दौर में उन गिने-चुने राजनेताओं में थे, जिनकी सफेद चादर जैसे निर्मल व्यक्तित्व पर एक भी बदनुमा दाग नहीं. जिनकी व्यक्तिगत ईमानदारी और सामाजिक सरोकारों की निष्ठा पर कोई संदेह नहीं कर सकता. चरम विरोधी भी नहीं.

लेकिन ईमानदारी उनके व्यक्तित्व का एक हिस्सा भर थी. 60 के दशक में इंजीनियर से राजनीति में आए राय दा मजदूरों के नेता बने ही, पृथक झारखण्ड राज्य के आंदोलन का जनक भी रहे.

लम्बे समय से बीमारी से जूझ रहे राय दा ने रविवार की सुबह केंद्रीय अस्पताल धनबाद में अंतिम सांस ली. और धनबाद कोयलांचल में “लाल झंडा” की राजनीति के एक युग का अंत हो गया.

टखनों तक पहुंचते पायजामे और सफेद मगर थोड़े मलिन गोल गले के कुर्ते में अक्सर बगल में डायरी दबाये गुजरते दिखनेवाले राय दा की स्पष्ट मान्यता रही है कि बीजेपी से झारखंडी परंपरा और सोच का बुनियादी विरोध है.

बीजेपी की सोच बाजारवादी है, जो पूंजीवादी सोच की एक विशेष विकृति है. दूसरी तरफ झारखंडी सोच, संस्कृति और परंपरा यदि पूर्णरूपेण समाजवादी नहीं भी तो निश्चित रूप से समाजमुखी है.

आदिवासी बहुत जरूरी होने पर ही बाजार का रुख करते हैं. झारखंडी जनता श्रम पर विश्वास करती है और उत्पादन करके अपने बलबूते जीवित रहना चाहती है.
अक्सर कॉमरेड राय दा कहा करते थे कि झारखंड की असली ऊर्जा है झारखंडी भावना. इसीलिए तमाम झारखंडी नेताओं को खरीद कर भी झारखंड आंदोलन समाप्त नहीं किया जा सका और अंत में अलग झारखंड राज्य का गठन करना पड़ा.

अलग राज्य के रूप में झारखंड के गठन के पूर्व भी इस क्षेत्र का विकास हुआ था. बहुत सारे उद्योग धंधे लगे थे. सार्वजनिक क्षेत्र में लगी कुल पूंजी का बड़ा भाग इसी राज्य में लगा.

सिंदरी एफसीआई, बोकारो स्टील प्लांट, एचईसी, बीसीसीएल, सीसीएल, डीवीसी आदि पीएसयू इसके उदाहरण हैं. लेकिन तमाम विकास बाहर से आये. विकसित लोगों का चारागाह बनता रहा. झारखंडियों का विकास नहीं हुआ, बल्कि उन्हें विस्थापन, उपेक्षा और शोषण का शिकार होना पड़ा.

कॉमरेड राय के मुताबिक, झारखंडी जनता थोपे हुए विकास से नफरत करती है. जिस विकास में उनसे पूछा नहीं जाता, जिसमें उनकी कोई भागिदारी नहीं, उस विकास का वे विरोध करते हैं.

किसी भी क्षेत्र का विकास उस क्षेत्र विशेष के जन समुदाय के सक्रिय सहयोग और उत्साह के बिना एक सीमा के ऊपर नहीं जा सकता. दरअसल झारखंड शुरू से ही एक आंतरिक उपनिवेश बन कर रहा और आंतरिक उपनिवेश एक दायरे से ऊपर उठ कर विकास की राह पर नहीं चल सकता.

उनसे एक मुलाकात में पूछा गया था कि इसका समाधान क्या है? उनका जवाब था – ‘समाधान तभी हो सकता है जब झारखंड के लिए अब तक लड़ने वाले और सही रूप में झारखंडी भावना से जुड़े लोग सही राजनीतिक दिशा के साथ नेतृत्व में आएं. लेकिन यहां विडंबना यह है कि जो लोग झारखंड के लिए लड़े हैं और जिनका झारखंडी भावना और संस्कृति से लगाव है, उनको झारखंड के विकास की सही दिशा का ज्ञान और समझ नहीं, दूसरी तरफ जिनके पास यह समझ है, उनमें झारखंडी भावना और संस्कृति से लगाव नहीं. वह दिशा क्या है? वह समाजवादी दिशा है. ’

कॉमरेड राय झारखंड के पुनर्निर्माण की एक मुकम्मल दृष्टि रखने वाले बिरले नेताओं में थे, जो न्याय के पक्षधर रहे और उसके लिए उन्होंने संघर्ष किया. आदिवासी जनता के प्रति उनकी प्रतिद्धता का सबसे बड़ा प्रमाण ये है कि मार्क्सवादी होते हुए भी उन्होंने उस दौर में झारखंड के अलग राज्य की मांग का समर्थन किया जब लगभग सभी वामदल इस मांग का विरोध करते थे.

राय दा न सिर्फ इस मांग का समर्थन करते थे, बल्कि झारखंड को समाजवादी आंदोलन के लिए उर्वर भूमि मानते थे. उनका कहना था कि आदिवासी से अधिक सर्वहारा आज की तारीख में है कौन?


कॉमरेड राय दा झारखंड में बाहर से आकर बसे श्रमिक
धनबाद के सिंदरी में वर्ष 1961 में नौकरी करने आये इंजीनियर ए के राय काले हीरे की नगरी धनबाद के राजनितिक सरजमीं पर कोहिनूर बनकर उभरेंगे यह कौन जानता था.

अपने कैडर को ही अपनी सम्पति मानने वाले राय दा का जीवन जितना ही सादगी भरा रहा, उनका राजनैतिक जीवन उतना ही संघर्षपूर्ण रहा. कामरेड एके राय एकदम अलग किस्म के मार्क्सवादी थे.

जो हमेशा जमीन से जुड़े थे और विचारधारा से उनका कभी विचलन नहीं हुआ. बल्कि शिबू सोरेन और सूरजमंडल की जोड़ी ने कामरेड एके राय को झारखंड आंदोलन से उन्हें दीकू बताते हुए अलग थलग कर दिया तो झारखंड आंदोलन का ही विचलन और विघटन हो गया.

कामरेड राय लगातार अंग्रेजी दैनिकों में लिखते रहे हैं और उनका लेखन भी अद्भुत है. कॉमरेड राय कहा करते थे कि–झारखंडी आंदोलन बुनियादी रूप से एक सामाजिक आंदोलन है जो एक स्तर के बाद अलग राज्य के आंदोलन में बदल गया और उन्हें अलग राज्य मिल भी गया.

अब इस अलग राज्य को उनके अपने राज्य में बदलना है तो उनके सामाजिक आंदोलन के सूत्र को पकड़ कर उसे समाजवादी आंदोलन में बदलना पड़ेगा. झारखंडी नेतृत्व के अंदर समाजवादी एवं वामपंथी विचारधारा उनके अस्तित्व रक्षा के लिए नितांत जरूरी है.

लेकिन एक साजिश के तहत इसे पीछे ढकेला जा रहा है और उसकी जगह सांप्रदायवादी, जातिवादी और उपभोक्तावादी रुझान पैदा किया जा रहा है. ’


कोलियरियों पर दबदबा रखने वाले माफियाओं के खिलाफ लड़ी लंबी लड़ाई 
धनबाद कोयलांचल में कभी किसान, मजदूरों के हक़ की लड़ाई तो कभी साहूकार, जमींदार और सूदखोरों के खिलाफ जंग का एलान. कोलियरियों पर दबदबा रखने वाले माफियाओं के खिलाफ भी राय दा ने लम्बी लड़ाई लड़ी.

शिबू सोरेन और बिनोद बिहारी महतो के साथ मिलकर राय दा ने झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया था और अलग राज्य का सपना देखा था. गुजरते वक्त में ए के राय और बिनोद बिहारी महतो साथ रह गए थे लेकिन शिबू सोरेन की राह जुदा हो गई.

वर्ष 1977 में जेल में रहते हुए राय दा ने पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. वर्ष 1980 में दूसरी बार तो वर्ष 1989 में तीसरी बार वह धनबाद लोकसभा सीट से चुनाव जीतने में सफल रहे.

इस बीच राय दा ने जनवादी किसान संग्राम समिति का गठन किया. यही नहीं कोयला मजदूरों के हक़ की लड़ाई लड़ने के लिए राय दा ने बिहार कोलियरी कामगार यूनियन का भी गठन किया. मार्क्सवादी समन्वय समिति (मासस) की स्थापना कर राय दा ने अपनी राजनैतिक मंच तैयार की.

राय दा के आदर्शो से प्रभावित उनके अनेक समर्थकों ने भी आजीवन कुवारां रहते हुए जनसेवा का बीड़ा उठाया है. राय समर्थकों की माने तो आज देश को राय दा के राजनैतिक विचारधारा वाले नेताओं की जरूरत है.


सियासत के संत राय दा ने झोपड़ीनुमा दो कमरे में गुजार दिया जीवन
सियासत के संत राय दा ने  मासस के झोपड़ीनुमा दो कमरे के कार्यालय में अपना जीवन गुजार दिया.

अपने कमरे और कपड़े की सफाई भी वह खुद किया करते थे. चुनावी सभा हो या मजदूरों की सभा राय दा अपने ही किसी कार्यकर्ता के दोपहिया वाहन पर बैठकर चल दिया करते थे. सादगी के प्रतीक राय दा ने अपने कमरे में बिजली का कनेक्सन नहीं रखा था.

चटाई पर सोया करते थे. फ्रिज की जगह पर मटके का इस्तेमाल करते थे. 15 जून 1935 को एक छोटे से कस्बे “राजशाही” (अब बांगलदेश) में जन्मे ए के राय के माता-पिता भी स्वंत्रतता सेनानी थे.

वर्ष 1959 में कोलकाता विश्वविद्यालय से एम. एस. सी. टेक्नोलोजी करने के बाद वह केमिकल इंजीनियर बने और वर्ष 1960 में जर्मन विश्वविद्यालय से उन्होंने जर्मनी भाषा की पढाई की.

वर्ष 1961 में धनबाद के सिंदरी स्थित एफसीआई के प्लानिंग एन्ड डेवलपमेंट (वर्तमान में पीडीआइएल) कम्पनी में नौकरी करने आए राय दा एक छोटी सी घटना को लेकर किसान और मजदूरो की लड़ाई में कूद पड़े.

बस क्या था इंजीनियर ए के राय बन बैठे कॉमरेड राय दा. वर्ष 1966 में राय दा को आफिसर होते हुए मजदूरों का साथ देने को लेकर नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया. सिंदरी विधानसभा क्षेत्र से पहली बार राय दा सीपीएम् के टिकट पर चुनावी दंगल में कूद पड़े और उन्होंने जीत भी हासिल की, और यहीं से उनका राजनैतिक सफर शुरू हो गया.

राय दा सिंदरी विधान सभा क्षेत्र से1967, 1969, 1971 लगातार तीन बार विधायक बने. वर्ष 1974 में जय प्रकाश नारायण के आह्वान पर बिहार विधानसभा से इस्तीफा देने वाले ए के राय पहले विधायक थे.

पिछले कुछ वर्षो से राय दा अस्वस्थ चल रहे थे. उनके समर्थक राय दा को अपने पास रख उनकी सेवा कर रहे थे. शरीर से अस्वस्थ राय दा अंतिम समय तक देश दुनिया की खबरों के साथ जुड़े रहते थे.

समाचार-पत्रों में छपे विशेष खबरों का कतरन वह नियमित रूप से फाइल कराते थे. उनके समर्थक बताते हैं कि अलग राज्य का सपना देखने वाले राय दा यहाँ की सरकार से खुश नहीं थे.