यों ही महात्मा नहीं माने गए – मोहनदास : बनखण्डी मिश्र

आज भारत के राजनीतिक परिवेश ही नहीं, बलिक विश्व के बौद्धिक फलक पर ´महात्मा शब्द के उच्चारण मात्र से, जिस व्यकित विशेष का बोध होता है- वे हैं राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी. लेकिन महात्मा के विशेषण से विभूषित होने वाले मोहनदास ने जिस अदम्य साहस, संघर्षशीलता और चारित्रिक दृढ़ता का परिचय दिया था - उसे उनका देश भूलता ही जा रहा है. अब तो यह आलम है कि ´गांधीगिरी नामक शब्द, आमजनों के बीच जिस प्रकार प्रचलित हो गया है, उससे बेवकूफी, निरीहता और फूहड़पन का एहसास होता है.

सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि इस विशेषण का प्रयोग, एक लोकप्रिय फिल्म ´लगे रहो मुन्ना भार्इ में हुआ था. इसको देखने के बाद, वर्तमान भारत के केन्द्रीय मंत्रिमंडल के एक वरिष्ट माननीय सदस्य ने, बड़े उत्साह के बाद सार्वजनिक बयान दिया कि अब वे गांधी और गांधीवाद को अच्छी तरह समझ पाये हैं. उनकी समझ पर तरस आता है.

एक बार हिन्दी के प्रसिद्ध कवि और शिक्षाविद स्वण् प्राचार्य मनोरंजन प्रसाद सिंह (भूतपूर्व प्राचार्य राजेन्द्र कालेज, छपरा) ने, अपने कालेज में ´प्रेमचंद जयंती का आयोजन किया था. उसमें शिरकत करने वाले एक ´विशिष्ठ अतिथि ने, अपनी एक अल्पज्ञतापूर्ण मौलिक उदभावना से हाल में उपस्थित श्रोताओं को विसिमत कर दिया था.

उन्होंने ´हरिऔध के ´प्रियप्रवास नामक ग्रंथ के लेखक के रूप में प्रेमचन्द की प्रसंशा की थी. प्राचार्य मनोरंजन अपने उद्वेग को दबा न सके. उन्होंने तत्काल भोजपुरी में इन पंकितयों का, न केवल सृजन किया बलिक सार्वजनिक तौर पर उस सभा में तत्काल उसका पाठ भी किया. वे अमर पंकितयां इस प्रकार हैं-

घींच-घांचकर मिडिल पास हम कयले बानी.

प्रेमचन्द के ´प्रिय प्रवास हम पढ़ले बानी.

लेकिन इस घटना के घटित हुए लगभग आधी सदी के बाद भी, हमारे मन में, सार्वजनिक जीवन से जुड़े तथाकथित राष्ट्रनिर्माताओं के इतिहास-ज्ञान या उनकी विशिष्ठ बौद्धिकता पर लानत भेजने की इच्छा होती है. अभी-अभी, स्थानीय नगर निगम के नवनिर्वाचित एक पार्शद ने गत ´जयप्रकाश जयन्ती समारोह के अवसर पर अचानक मुझसे एक सवाल पूछा जिससे मैं भौचका रह गया.

उन माननीय की जिज्ञासा थी कि जयप्रकाश नारायण किस पार्टी के नेता थे और किस मंत्रिमंडल के सदस्य थे ? इस प्रश्न पर हमारा विचलित हो जाना शायद अस्वाभाविक नहीं था! आज आत्म-प्रचार और चापलूसों द्वारा महिमामंडित किए जाने वाले राजनीतिक नेताओं से लेकर, अदना कार्यकर्ताओ की भरमार हो गयी है.

ऐसी हालत में ´लोकनायक या ´महात्मा जैसे निर्मल और सर्वग्राहय ऐतिहासिक विशेषण से विभूषित महापुरुषों  की महिमा को आम-जनों तक पहुंचाने की क्या व्यवस्था हो ?

बात चली थी, मोहनदास के महात्मा घोषित किए जाने की. भारत के राजनीतिक परिवेश में मोहनदास करमचंद गांधी ने, अपने अफ्रीकी प्रवास के बाद, सन 1901 में प्रवेश किया. इसके पूर्व, वे अफ्रीका में बसे लाखों बंधुआ मजदूरों, व्यापारियों और आम नागरिकों के साथ-साथ वहां के शोषित-पीडि़त अश्वेत समुदाय के बीच लम्बा संघर्शशील समय व्यतीत कर चुके थे.

वहां उन्होंने सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह का सफल प्रयोग किया था. उनकी उपलबिधयों की खबर भारत में, साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्षरत जनता और उनके आदरणीय रहनुमाओं - सर्वश्री फिरोजशाह मेहता, लोकमान्य तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले तक पहुंच चुकी थी. इन तीनों महान आत्माओं को मोहनदास ने हिमालय (फिरोजशाह मेहता), सागर (लोकमान्य तिलक) और गंगा (गोपाल कृश्ण गोखले) की तरह पवित्र और पूजनीय माना था. आगे चलकर मोहनदास ने, उनके चरणों में, अपने को समर्पित कर दिया.

यों मोहनदास अपना एकल राजनीतिक प्रयोग दक्षिण अफ्रीका में कर चुके थे और अपनी आतिमक शकितयों को काफी विकसित कर लिया था. उनके विचार और आदर्शो की जड़े काफी गहरे तक जम चुकी थीं. भारत लौटने पर उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के अनुभवों के आधार पर एक पुस्तिका ´ग्रीन पैम्फलेट के रूप में जारी की थी.

वैसे इस पैम्फलेट में अफ्रीकी जनता की सामाजिक एवं राजनीतिक उपलबिधयों का सामान्य ब्यौरा था. आगे चलकर वह पुस्तिका भारतीय नागरिकों को प्रेरित करने और उनके बीच देशभकित की मशाल जलाने के लिए, एक महत्वपूर्ण बौद्धिक स्फुलिंग का काम कर गयी.

उसी वर्ष (1901 र्इ0 में) पहली बार मोहनदास कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में अपने आदरणीय नेताओं के साथ एक युवा स्वयंसेवक के रूप में गए. उक्त सम्मेलन के अध्यक्ष दिनशा एडूलजी वाचा थे. यधपि उक्त सम्मेलन में मोहनदास ने तत्काल ऐसा कोई प्रभाव नहीं छोड़ा जिसका उल्लेख आज लिखे गए ´कांग्रेस के 125 वर्ष जैसे इतिहास ग्रंथ में हो सके.

किन्तु वे एक सूक्ष्मद्रष्टा  परीक्षक की नजर में चढ़ चुके थे. परीक्षक थे - विश्व कवि रवीन्द्र नाथ ठाकुर. आगे रवीन्द्र ने अपने से आठ वर्ष कम उम्र के, समकालीन उस व्यकित से न केवल संपर्क बनाया, बलिक उसकी उपलबिधयों का आकलन करते हुए एक सटीक उपमा की तलाश में मनन-चिंतन करने लगे.

इस बीच अफ्रीका के जन-आंदोलन के सहयोगी अंग्रेज मित्र सीण् एफण् एन्ड्रयूज को (जो भारतबंधु के नाम से विख्यात थे) मोहनदास ने एक प्राध्यापक के रूप में कवि गुरू के पास शांतिनिकेतन भेजा था. एन्ड्रयूज साहब को मोहनदास प्यार से चार्ली के नाम से पुकारते थे. यही ´चार्ली सत्याग्रही मोहनदास और कवि गुरू के बीच की एक मजबूत कड़ी, एक सेतु - निष्पक्ष और नियमित संदेशवाहक बने.

मोहनदास, कवि गुरू को लिखे अपने पत्रों में, रवीन्द्र नाथ को, शांतिनिकेतन के एक आम अंतेवासी की तरह ´गुरूदेव कहकर संबोधित करते थे. उत्तर में रवीन्द्र उनको ´मोहनदास लिखते थे. मोहनदास ने दक्षिण अफ्रीका सिथत अपने फीनीक्स आश्रम के दो जिज्ञासु छात्रों को भी शांतिनिकेतन में एन्ड्रयूज साहब के मार्फत दाखिला कराया था. वे दोनों छात्र असली भारत को देखने और यहां की सांस्कृतिक चेतना का अध्ययन करने की मंशा लेकर आये थे.

सन 1901 र्इ0 वाले कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के बाद मोहनदास-रवीन्द्र के बीच पत्राचार नियमित शुरू हो गया. सन 1905 र्इ0 में हुए बंग विभाजन के कारण हुए स्वदेशी आंदोलन के बाद उसमें तेजी आयी और नैरन्तर्य बढ़ता ही गया. कविगुरू, अपने पत्रों में आंदोलन में भाग लेने वाले असंख्य कार्यकर्ताओ की मनोभावना और तात्कालीन कांगे्रस की राजनीतिक सीमाओं के प्रति अपने संवेगात्मक विचार प्रस्तुत किया करते थे.

उन्होंने ऐसा अनुभव किया था कि मोहनदास ही भारत के स्वतंत्रता-संग्राम को नयी दिशा प्रदान कर सकता है क्योंकि उसके पास जमीनी संघर्ष का यथार्थवादी अनुभव था. उस समय तक भारत के, गांधी-पूर्व नेताओं में जो राजनीतिक चेतना थी, उसको रवीन्द्र आंदोलन के लिए अपर्याप्त मानते थे.

सन 1901 र्इ0 के कांग्रेस अधिवेशन में अफ्रीका में प्राप्त अपने अनुभवों के आधार पर मोहनदास गांधी ने एक प्रस्ताव पेश किया था. उस वक्त अपना परिचय ´दक्षिण अफ्रीका के लाखों ब्रिटिश भारतीयों के प्रतिनिधि के रूप में दिया था.

इसका उल्लेख डॉ. वीणापांभी  सीतारमैया द्वारा रचित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास 1885-1935 में (पृष्ट-78) पर किया गया है. उपरोक्त प्रस्ताव की गंभीरता को समझते हुए, कविगुरू रवीन्द्रनाथ के बड़े भार्इ ज्योतिन्द्रनाथ, गांधी जी से मिले और दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीय प्रवासियों के बारे में उनके एक लेख का अनुवाद, अपने परिवार द्वारा प्रकाशित एवं संचालित पत्रिका ´भारती में छापा था.

गांधी-टैगोर के बीच वैचारिक आदान-प्रदान का जो सिलसिला शुरु हुआ था, वह कविगुरू के निधन पर्यन्त (1941 र्इ0) तक चलता रहा. इस पत्राचार के क्रम में, मोहनदास कविगुरू को हमेशा ´गुरूदेव के नाम से संबोधित किया करते थे. इसी श्रृंखला में, मोहनदास के नाम (12 अप्रील 1919) को लिखे पत्र में कविगुरू ने पहली बार ´महात्मा नाम से संबोधन किया था.

इस पत्र की ऐतिहासिक विशेषता या विडंबना यह है कि इसके अगले दिन ही (13 अप्रील 1919 को) जलियांवाला बाग का नरसंहार हुआ था और भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम को एक नये मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया था.     

- बनखण्डी मिश्र (लेखक वरिश्ठ पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता)

Web Title : MOHANDAS KARAMCHAND GANDHI WAS CONSIDERED AS MAHATMA MOHANDAS : BANKHANDI MISHRA