पापा जो बचपन में हमारा ख्याल रखते हैं.
पापा जो युवावस्था में हमें सही मार्ग दिखाते हैं और दुनिया से बचाते हैं.
और वही पापा एक दिन हमारे लिए आंख बचाने की ´वस्तु´ हो जाते हैं.
वस्तु, जी हां ´वस्तु´ क्योंकि किसी वस्तु का ही हम उपयोग करते हैं.
जिनसे हमें प्यार होता है, उनके लिए हमारे दिल में सम्मान और समर्पण की भावना होती है, लेकिन आधुनिकता की होड़ में शामिल कुछ युवतियों में पापा को सिर्फ वस्तु बनाने की होड़ है.
´माई पापा इज माई एटीम.. . . . कनाट प्लेस में बिकती टी-शर्ट को पहने एक युवती शायद यही बताना चाह रही थी.
राजौरी गार्डन का मेट्रो स्टेशन. जून महीने की चिलचिलाती धूप में एक पिता अपना स्कूटर लिए खड़ा है.
उसके बगल में ही लाल रंग की हुण्डई आई10 गाड़ी में एसी की हवा खाता एक युवक गुनगुना रहा है.
उसकी नज़र बार-बार घड़ी पर है. लो-वेस्ट जींस और टॉप पहने, चश्मा को सिर पर टिकाए एक युवती मेट्रो स्टेशन की सीढ़ी उतरती है.
गाड़ी के अन्दर बैठा युवक गाड़ी से उतरते हुए स्टेशन की ओर लपकता है कि अचानक लड़की की नज़र स्कूटर पर बैठे पिता पर पड़ती है.
युवती युवक की जगह स्कूटर की ओर मुड़ जाती है.
युवक उधर मुड़ता है कि अचानक युवती की आवाज उसे सुनाई देती है, ´पापा आप इतनी जल्दी आ गए!
आपको इतना इन्तजार करने की क्या जरूरूत थी!´ पापा, ´देखती नहीं कितनी धूप है.
मैंने सोचा, तुम्हें इन्तजार न करना पड़े इसलिए पहले ही आ गया. ´
युवक निराश और युवती की आंखों और होठों पर मन्द-मन्द मुस्कान... .
पापा के साथ स्कूटर पर बैठकर युवती फिर से मुस्कुराई.
वह युवक गाड़ी में बैठकर उनके पीछे-पीछे हो लेता है.
अन्दर से युवक की भावना एक के बाद इशारे व फ़्लाइंग किस के जरिए बाहर आने लगती है और युवती अपना हाथ हल्का खोलकर उसके इशारों व किसों को थामने की कोशिश में लग जाती है.
उसकी आंखों में अभी भी चंचलता है.
उस चंचलता में प्रेमी की तड़प पर प्रेमिका की शोखी झलकती है.
पापा पूछते हैं, ´बेटा ठीक से बैठी हो न!´ ´हां पापा, आप बस गाड़ी चलाइए´, युवती ने कहा.
उस स्कूटर में साइड मिरर भी नहीं है, जिससे युवती और निश्चिंत है.
युवक कुछ दूर तक स्कूटर के पीछे चलता है, स्टेरिंग पर मुक्के बरसाता है और प्रेमिका की आंखों की शरारत को भांप कर हाथ दिल पर रखकर आहें भरता है और आगे से यू टर्न लेकर निकल पड़ता है.
दृश्य नंबर-दो...
रात दस बजे के मेट्रो के पहले डिब्बे में यात्रा कर रहा एक लड़का और एक लड़की एक-दूसरे के इतने करीब हैं कि उनकी सांस एक-दूसरे से टकरा रही है.
आजू-बाजू के लोगों की नज़रें उन पर गड़ी हैं.
जमाने से बेपरवाह दोनों एक-दूसरे की कमर में बाहें डाले हैं.
राजीव चौक से द्वारका मोड़ स्टेशन के बीच तिलकनगर स्टेशन आ चुका है, तभी लड़की का मोबाइल बज उठता है. ´
पापा हैं´, युवती युवक से कहती है. ´
जी पापा, पापा अभी मोतीनगर ही पहुंची हूं.
आप आराम से मुझे लेने आना. ´
लोग आश्चर्य से उसे देखते हैं.
उसने अपने पापा से झूठ बोला है.
वह कई स्टेशन आगे पहुंच चुकी है और खुद को बहुत पीछे बता रही है.
युवक उसके गाल पर हाथ फेरता है और फिर मुस्कुरा उठता है.
युवक, ´तुमने पापा को अच्छा डिच किया. ´
लड़की, वेल, ´अब हम थोड़ी देर और साथ रह सकेंगे. ´
बदलते रिश्ते
सचमुच पापा जल्दी न आना... यहां तुमसे भी जरूरी कोई है जिसे मेरा इन्तजार है!
तुम बाद में भी आओगे तो फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन उसके साथ एक-एक पल कीमती है.
पापा तुम सचमुच जल्दी मत आना... फादर्स डे पर मैं तुम्हें याद कर लूंगी, तुम्हारे लिए फ्लावर या अच्छे गिफ्ट भी ले आऊंगी, लेकिन पापा समझा करो अब मैं बड़ी हो गई हूं.
मेरी समझ : क्या सचमुच आज के परिवेश में रिश्ते महज वस्तु बनकर रह गए है... . क्या अब माता पिता सिर्फ जरूरतों को पूरा करने के लिए ही रह गए है...
कल तक हम जनक और जानकी के रिश्ते को सबसे विश्वासप्रद और पवित्र रिश्ता मानते थे क्या आज वो रिश्ते इतने बदले गए है...
शायद इसे ही कहते है बदलते युग के बदलते रिश्ते...
बहरहाल मैं तो यही उम्मीद करुँगी की पिता और बेटी का रिश्ता हमेशा की तरह पवित्र और फलता फूलता रहता... . जिसकी जड़े विश्वास और प्यार सिंची जाए..