अपने बुलंद हौसले और हिम्मत से तालिबानी आतंकियों के नापाक इरादों को धूल चटा देने वाली जांबाज मलाला यूसुफजई की कहानी ने दुनिया को प्रेरित किया है. मलाला के इन्हीं बुलंद इरादों पर डायरेक्टर एच ई अमजद खान ने फिल्म गुल मकई बनाई है. लेकिन अफसोस की बात है कि इस मूवी को देखने के लिए आपको हिम्मत जुटानी होगी, क्योंकि ये फिल्म आपके पैसों की बर्बादी के साथ समय और धैर्य का भी इम्तिहान लेती है.
कहानी
गुल मकई की कहानी पाकिस्तान स्थित खूबसूरत स्वात वैली से शुरू होती है. जहां तालिबानी दशहगर्दों ने अपने हिसाब से सच्चे मुसलमान होने की परिभाषा तय की है. स्वात में पूरी तरह कब्जा जमा चुके ये आतंकी महिलाओं की पढ़ाई के सख्त खिलाफ हैं. उनके मुताबिक, टीवी देखना, पुरुषों का क्लीन शेव होना, लड़कियों का पढ़ाई करना, औरतों का बिना पति के घर से बाहर निकलना, 5 टाइम की नमाज न पढ़ना, बिना बुर्खे के बाहर जाना कुरान के खिलाफ है. दशहतगर्दों ने घाटी के ज्यातादर स्कूलों को जलाकर राख कर दिया है.
मलाला के पिता जियाउद्दीन यूसुफजई (अतुल कुलकर्णी) स्कूल में प्रिंसिपल हैं. दिन-रात गोलीबारी की आवाजों को सुन मलाला (रीम शेख) की नींद उड़ गई हैं. स्कूल बंद होने से वो परेशान है. मलाला सपने में भी आतंकियों की दरिंदगी को देख चौंक उठती है. मलाला के पिता आतंकियों के खिलाफ बोलने से नहीं चूकते. मलाला अपने पिता के साथ बीबीसी और बाकी न्यूज चैनलों को इंटरव्यू देकर आतंकियों के खिलाफ आवाज उठाते हैं. मलाला लड़कियों की पढ़ाई के अधिकार के लिए लड़ती है. कहानी आगे बढ़ती है स्वात के डर भरे मंजर पर मलाला बीबीसी के लिए ब्लॉग लिखने का फैसला करती है. इस बीच पाकिस्तानी आर्मी और तालिबानी आतंकियों के बीच जंग होती है. मलाला और उसके पिता की बुलंद आवाज को दबाने के लिए उन्हें कई बार जान से मारने की धमकी मिलती है. फिर एक दिन आतंकी मलाला को गोली मार देते हैं. आतंकियों की गोली से मलाला बच तो जाती है लेकिन उसके नेक इरादों की फतह होती है.
एक्टिंग
गुल मकई में एक्ट्रेस रीम शेख ने मलाला का रोल प्ले किया है. रीम पूरी फिल्म में निराश करती हैं. उनकी एक्टिंग बेहद ही कमजोर है. आतंकियों के साये में जीते हुए जिस दुख, डर, सिहरन और दर्द का भाव रीम शेख के चेहरे पर होने चाहिए थे, वे बिल्कुल भी नहीं हैं. वे फिल्म में बहादुर मलाला दिखने के बजाय कभी बेबस और कभी बुझी हुई सी नजर आई हैं. उनके पेरेंट्स की भूमिका में दिखे अतुल कुलकर्णी और दिव्या दत्ता भी खास प्रभावी नहीं लगे. ये फिल्म एक्टर ओम पुरी की आखिरी मूवी थी. गुल मकई में महज वे 2 बार स्क्रीन पर दिखे. डायरेक्टर से सबसे बड़ी चूक ये हुई कि उन्होंने किसी भी किरदार को ढंग से नहीं गढ़ा.
डायरेक्शन
ये फिल्म खराब डायरेक्शन का अद्भुत नमूना है. अच्छा होता अगर मेकर्स मलाला पर फिल्म बनाने से बेहतर कोई डॉक्यूमेंट्री या शॉर्ट मूवी बना लेते. कहानी कमजोर और बिखरी हुई है. गुल मकई मलाला यूसुफजई की जिंदगी पर बनी पहली बायोपिक है. इतने स्ट्रांग और पावरफुल सब्जेक्ट की स्टोरीलाइन, स्क्रीनप्ले और अदाकारी इतनी लचर होगी, दर्शकों ने भी सोचा नहीं होगा. गुल मकई मलाला की आधी-अधूरी बायोपिक की तरह है. जिसमें निर्देशक मलाला के संघर्ष और जज्बातों को पर्दे पर नहीं उतार सके.
ये फिल्म देखने से बेहतर होगा आप मलाला को जानने और समझने के लिये गूगल कर लें या उनपर बनी डॉक्यूमेंट्री देख लें. क्योंकि फिल्म में आपको गूगल पर दी गई जानकारियों से ज्यादा कुछ नहीं मिलेगा. किसी भी बायोपिक के एक्स फैक्टर उसके अनसुने पहलू होते हैं. लेकिन गुल मकई मलाला को सिर्फ बाहरी तौर पर ही दर्शाती है. ये फिल्म आपको थियेटर में बैठे-बैठे थका देती है, इसलिए इसे देखने की कोई भी वजह नहीं है.