आखिर किसका और कैसा विकास, किसान आंदोलन से बेपवाह सरकार!

(मुस्ताअली बोहरा, भोपाल). पिछला साल कोरोना महामारी और लॉक डाउन में बीत गया, जाते-जाते किसान आंदोलन शुरू हो गया जो नये साल के आगाज तक जारी रहा. तमाम गतिरोधों के बीच नये साल में आर्थिक रफ्तार बढ़ने की उम्मीद तो जताई ही जा सकती है. हर छोटा बड़ा व्यापारी चाहता है कि हालात बेहतर हों और अर्थव्यवस्था पटरी पर आये. आर्थिक गतिविधियों पर नजर रखने वाले सूचकांक बताते हैं कि अर्थव्यवस्था में सुधार हो रहा है, हालांकि महंगाई पहले से बढ़ी है. खाने पीने के जरूरी सामान, किराना, अनाज, रसाई गैस, कपड़ा यहां तक कि लोहे के दाम भी बढ़ गये हैं. जानकारों का कहना है कि अर्थव्यवस्था कितनी सुधरी इसका पता रोजगार से चलता है सो रोजगार के अवसर पैदा हो रहे हैं. लॉकडाउन में बंद हुई कंपनियां धीरे-धीरे शुरू हो रही है और इससे श्रमबल में भी सुधार के संकेत मिल रहे हैं. इंडेक्स से मिल रहे सकारात्मक संकेतों से माना जा सकता है कि स्थितियां अनुकूल रहीं तो जल्द हम मंदी से उबर जायेंगे. इन सबके बीच सरकार की नीतियां और योजनाएं काफी हद तक बाजार की स्थिरता तय करतीं हैं.  

कोरोना महामारी के बाद किसान आंदोलन ने कारोबारियों की चिंता बढ़ा दी है. संसद का शीतकालीन सत्र तो कोरोना की भेंट चढ़ गया, अन्यथा तीन नये कृषि कानून पर संसद में बहस होती और शायद किसान आंदोलन इतना लंबा नहीं खिंचता. इसके साथ ही पड़ोसी देशांे के साथ विदेश नीति सहित अन्य गंभीर मसलों पर भी चर्चा होती. विपक्ष को सवाल करने का मौका मिलता तो सरकार को जवाब देने का अवसर प्राप्त होता. आमजन के जहन में भी सवाल है जो सरकार हर छोटी मोटी बात को इंवेट बना देती हो आखिर उसने तीन कृषि कानूनों को इतने चुपके से क्यों लागू कर दिया? आखिर इतनी जल्दबाजी में अध्यादेश क्यों लाया गया? किसानों से जुड़े कानूनों के लिए संसद का सत्र बुलाकर चर्चा क्यों नहीं की गई? आखिर ऐसा क्या है कि किसानों से जुड़ा कानून ही किसानों की समझ में नहीं आ रहा है? वैसे, तो किसान और सरकार के बीच कई दौरों की बातचीत हुई और इस बीच तीन दर्जन से ज्यादा किसानों की मौत हो गई जो कि दुःखद है. लोकतांत्रिक सरकार दायित्व है कि वह हर किसी की बात सुने. क्योंकि, सरकार सिर्फ उन लोगों की नुमाइंदगी नहीं करती जिसका वोट पाकर वह सत्ता में आई है.  

संसद का बजट सत्र अगले महीने है लेकिन, यदि निर्धारित प्रक्रियाओं के तहत सत्र चले तो बात बनें. इससे पहले मानसून सत्र में भी तय प्रक्रियाओं का पालन नहीं हुआ. ये सत्र तो चला लेकिन प्रश्नकाल नहीं रखा गया. वजह बताई गई कोरोना महामारी. यदि कोरोना महामारी के कारण प्रश्नकाल नहीं रखा गया तो सवाल ये भी है कि कार्य उत्पादकता के मामलों के रिकार्ड कैसे बनें. बहिष्कार और हंगामें के बीच तय अवधि से समाप्त हुए मानसून सत्र में कई बिल पास हो गय, आखिर कैसे? तो क्या ये मान लिया जाए कि प्रश्नकाल सिर्फ सवालों से बचने के लिए नहीं रखा गया. इधर, कृषि कानूनों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में भी याचिकायें दायर की गई हैं. शीर्ष अदालत ने भी इन याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए चिंता जाहिर की है. सीजेआई ने कहा कि हम हालात को समझते है और हम चाहते हैं कि बातचीत से मामले को सुलझाया जायें. तीन कृषि कानूनों को रद्द करने के खिलाफ दायर याचिकाओं की सुनवाई के बीच किसान आंदोलन भी चरम पर है.

कुल मिलाकर, सत्ताधीश ये मान कर चल रहे हैं उन्होंने जो कह दिया या कर दिया वहीं सहीं हैं, तिस पर भी तर्क ये कि विकास को राजनीति से दूर रखना चाहिए. तो क्या, देश की अर्थव्यवस्था में किसानों की कोई भागीदारी नहीं है? क्या कृषि कानूनों को लेकर किसानों के सवाल राजनीति प्रेरित हैं? आखिर, सरकार किसका और कैसा विकास चाहती है, ये यक्ष प्रश्न है.  


Web Title : AFTER ALL, WHOSE AND WHAT DEVELOPMENT, THE GOVERNMENT OF THE FARMERS MOVEMENT!