बाघ बाहुलता के बाद भी सेंचुरी के लिए तरस रहा जिला,वनमंडलाधिकारी वन्यप्राणी का जिले में हो पद सृजन, जिले में बाघ सुरक्षा भगवान भरोसे!

बालाघाट. जिले के जंगलो की सुंदरता बढ़ाते बाघ, जिले के वन्यक्षेत्रो में बाहुल्य मात्रा में पाये जाते है, या यह कहे कि बालाघाट जिला वन्यप्राणी बाघ की नर्सरी है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. बावजूद इसके राजनैतिक, सामाजिक और प्रशासनिक नेतृत्व का आभाव कहे या प्रयास, जिसकी कमी के कारण पड़ोसी मंडला जिले को कान्हा के साथ फेन सेंचुरी भी मिल गई, लेकिन केवल बालाघाट को कान्हा के अलावा कोई ऐसी सेंचुरी 5 दशकों से भी ज्यादा वर्षो के इतिहास में एक सेंचुरी तक नहीं मिल सकी. जबकि वन्यजीव प्रेमी का मानना है कि यदि प्रदेश को टायगर स्टेट का दर्जा मिला है तो वह केवल बालाघाट में टायगर की मौजूदगी से ही हो सका है. वन्यजीव प्रेमी की मानें तो जिले के जंगलो में बाघ की मौजूदगी कुछ टाईगर रिजर्व से कहीं ज्यादा है, बावजूद जिला बाघ संरक्षित क्षेत्र घोषित नहीं हो सका. जो जिले का एक बड़ा दुर्भाग्य है, जबकि बाघ संरक्षित करने इससे जुड़े जिले मंडला में फेन, सिवनी मंे रूखड़, छत्तीसगढ़ के कवर्धा में भोरमदेव, खैरागढ़ और पड़ोसी गोंदिया जिले में नागझीरा सेंचुरी बनाई गई है. जबकि बालाघाट जिले के लौंगुर, सोनेवानी, जलगांव सहित अन्य क्षेत्र में बाघ की बाहुलता सर्वाधिक है.  

एक ओर विश्व बाघ दिवस पर बाघो को संरक्षित करने की बड़ी-बड़ी बाते हो रही है, वहीं बाघ बाहुल्य जिले में बाघो को संरक्षित करने का जिम्मा अपने विभाग से संबंधित सामान्य वनमंडल के जिम्मे है, जिसे उसके विभाग के ही कार्यो से फुर्सत नहीं है. पौधारोपण से लेकर आग, अतिक्रमण और लोकसभा एवं विधानसभा में लगे प्रश्नों के जवाब देने में व्यतित होने वाले इस विभाग के जिम्मेदार, कैसे वन्यजीव को संरक्षित और सुरक्षित करने में अपना योगदान दे पायेंगे, यह चिंता करने और समझने वाली बात है. चूंकि बालाघाट में बाघ के शिकार के कोई मामले यदि सामने भी आये तो बाहर जिलो से आये है, जिसमें उन जिलो की टीम ने ही कार्यवाही की है.

एक जानकारी के अनुसार जिले में बाघों की सुरक्षा और शिकार को लेकर भी विभागों के बीच आपसी समन्वय नहीं होना है, चूंकि काफी समय से टाईगर सेल की बैठकें नहीं हो रही है, जिससे कि टाईगर के संरक्षण और सुरक्षा को लेकर विभागों के बीच आपसी समन्वय स्थापित हो सकें. चूंकि बालाघाट जिले में सबसे ज्यादा संरक्षित वन्यजीव बाघ के शिकार मामले बिजली करंेट से संबंधित सामने आते है, जिससे बिजली विभाग को बिजली लाईन ट्रिप हो जाने से इसका पता चल जाता है कि किस लोकेशन पर करंेट की घटना हुई है, लेकिन विभागों के बीच समन्वय नहीं होने से इसकी जानकारी वनविभाग को नहीं मिल पाती है और जब तक वनविभाग को बाघ के शिकार की जानकारी मिलती है, तब तक आरोपी शिकार करने के साधन करेंट के सबूतों को मिटा चुके थे. जिसके बाद विभाग को संरक्षित वन्यजीव बाघ के शिकार के आरोपियों तक पहुंचने में मशक्कत करनी पड़ती है.  

जिसको लेकर वन्यजीव प्रेमियों का कहना है कि प्रदेश में वन्यप्राणी को लेकर पीसीससएफ (प्रिंसिपल चीफ कंर्जेवेटर ऑफ फारेस्ट) की अलग ही विभाग है, उसी प्रकार बाघ बाहुल्य जिले में भी वन्यप्राणी को लेकर एक वनमंडलाधिकारी के पद का सृजन किया जाना चाहिये, ताकि वह जिले के वनो में मौजूद बाघांे के संरक्षण और सुरक्षा को लेकर कार्य कर सकें.  

जिले में बाघो की सुरक्षा भगवान भरोसे

जिले में बाघ के संरक्षण और सुरक्षा का दायित्व सामान्य वनमंडल के तहत है लेकिन इस विभाग के जिम्मेदारों को अपने ही विभाग के कार्यो और जानकारी से फुर्सत नहीं है, जिस पर वनो में मौजूद वन्यप्राणियों की सुरक्षा का अतिरिक्त भार है, जिससे वह ज्यादा फिल्ड पर नहीं जा पाते है. जिसके चलते जिले में संरक्षित वन्यजीव बाघ की सुरक्षा भगवान भरोसे ही है. यही नहीं टाईगर स्टेट की खुशी में प्रकृति द्वारा बालाघाट को बाघ बाहुल्य सौभाग्य को हम नजरअंदाज कर रहे है. जिले के सालो के इतिहास में यह यह देखने नहीं मिला कि राजनैतिक, सामाजिक एवं प्रशासनिक रूप से जिले के वनों में बाहुलता में पाये जाने वाले बाघों के संरक्षित को लेकर संरक्षित क्षेत्र बनाने का प्रयास किया गया हो. जिले में गौतस्करी, वन्यप्राणी शिकार, पेड़ो की अवैध कटाई, बेजा रेत उत्खनन, सिंगल यूज पॉलीथिन का बेतहाशा उपयोग पर कोई ठोस कार्यवाही नहीं होना और बाघों के शिकार, उसकी सुस्त बेनतीजा जांच, जंगल अधिकारियों का खुला भ्रष्टाचार, बाघ बाहुल्य क्षेत्रो में बढ़ता पेड़ो की कटाई का टारगेट, बाघो की मौजूदगी के बावजूद संरक्षित क्षेत्र घोषित न होना, कई साल पुराने शिकार के मामलो का लंबित होना, शिकारियों का न पकड़े जाने, टाईगर सेल की बैठकें न होना और वन्यजीव समर्पित अधिकारी का पद न होना तथा विभागों में सामंजस्य की कमी, जिले के वनो मंे पाये जाने वाले बाघों की सुरक्षा पर सवाल खड़े करती है. बावजूद इसके जिले में बाघो की संख्या, जिलेवासियों के लिए गौरान्वित करने वाली है, एक जानकारी के अनुसार जिले में कुछ टायगर रिजर्व से ज्यादा बाघो की संख्या हैं.  

आजादी के बाद पहला टायगर रिजर्व कान्हा मिला

आजादी के बाद तत्कालीन केन्द्र की इंदिरा गांधी सरकार ने वर्ष 1972 में पहले टायगर रिजर्व के रूप में कान्हा की स्थापना की है, भले ही उसका एक छोर बालाघाट से जुड़ा हो लेकिन उसकी सारी गतिविधियां और प्रशासनिक कार्यो का कार्यालय मंडला में होने से वह मंडला जिले का ही कहलाता है. वन्यजीव प्रेमियों की मानें तो टायगर रिजर्व कान्हा में पाये जाने वाले बाघो की तरह ही जिले के वनक्षेत्रो मंे बाघ की संख्या बढ़़ी है. जिसका जीवंत उदाहरण जिले के सोनेवानी, लौंगुर, जलगांव और लांजी क्षेत्र के सालेटेकरी और खैरागढ़ के मध्य स्थित जंगलो में बाघो के दिखाई देने की खबरों से पता चलता है. ,


इनका कहना है

जिले के वनक्षेत्र में कुछ टाईगर रिजर्व से ज्यादा बाघ पाये जाते है. जिसके संरक्षण ओर सुरक्षा को लेकर बालाघाट जिले में भी एक संरक्षित बनाया जाना चाहिये, इससे न केवल पर्यटन क्षेत्र को बढ़ावा मिलेगा अपितु बालाघाट जिला भी टाईगर क्षेत्र के रूप में पहचाना जायेगा. जिसके लिए राजनैतिक, सामाजिक और प्रशासनिक स्तर से प्रयास होने चाहिये. बालाघाट में बाघो की सुरक्षा को लेकर भी हमें गंभीरता दिखाने की जरूरत है, जिसके लिए वन्यप्राणी से संबंधित वनमंडलाधिकारी का पद सृजन किया जाना चाहिये. यह जिलेवासियों के लिए गौरव की बात है कि जिले के वनक्षेत्रो में बाघों की मौजूदगी अच्छी-खासी है, जो संरक्षित क्षेत्र बनाये जाने के लिए पर्याप्त है, बस इसके लिए ठोस प्रयास की जरूरत है.

अभय कोचर, वन्यजीव प्रेमी 


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