पंडित सुधाकर शर्मा एक जीवंत सांस्कृतिक पुरुष, जन्मदिन पर विशेष

बालाघाट. (डॉ. जितेन्द्रकुमार सिंह ‘संजय’). 10 अप्रैल, 2009 को वाणी-विहार की बारादरी में गीतर्षि प्रो. सुमेर सिंह ‘शैलेश’ के साथ मैं बैठा था. साथ में मेरे काव्य-गुरु कविराज पंडित रमाशंकर पांडेय ‘विकल’ और हिन्दी-ब्रजी के कालजयी कवि डॉ. प्रकाश द्विवेदी भी थे. उसी समय वाणी-विहार के प्रथम तल से नीचे आते हुए पंडित सुधाकर शर्मा के प्रथम दर्शन हुए. उस दिन पंडित सुधाकर शर्मा को अत्यन्त निकट से देखने और सुनने का अवसर मिला. सांध्यबेला में आयोजित साहित्योत्सव में पंडित सुधाकर शर्मा के अनेक गीत सुनने को मिले. ‘‘मैं गोरी गोरी सोयी थी, जागी तो हो गयी साँवरी’’ ‘तुम ऐसे ही आ मिलो प्रिये! जीवन में, जैसे प्यासे को मिल जाये गंगा का उद्गम! जैसी कई गीत-पंक्तियाँ आज भी मेरे श्रुतिपुटों में गूँज रही हैं. पंडित सुधाकर शर्मा का काव्य-वैभव जितना समृद्ध है, उससे कहीं अधिक श्रुतिसुखद उनकी काव्यपाठ करने की शैली है. उनको काव्यपाठ करते हुए देखना नयनरम्य संस्कृति के सौंद्रर्य का साक्षात्कार करने जैसा है. सतना के साहित्योत्सव में पंडित सुधाकर शर्मा को सुनते हुए ऐसा लग रहा था कि उनके रोम रोम से कविता झंकृत हो रही है. काव्यपाठ करते समय उनकी उंगलियाँ ऐसे थिरक रही थीं, मानो कविता के गूढ़ रहस्यों को अनावृत कर रही हों. नयनों की पुतलियाँ सीधे सीधे हृदय से संवाद रच रही थीं. उस दिन मुझे पहली बार आचार्य राजशेखर की काव्यपाठ-संबंधी अवधारणा चरितार्थ होती प्रतीत हुई.

उत्तम काव्यपाठ को परिभाषित करते हुए आचार्य राजशेखर कहते हैं कि उत्तम काव्यपाठ में विभक्तियां स्पष्ट होती हैं, समास स्पष्ट रहते हैं तथा संधियाँ सुस्पष्ट होती हैं. पाठ करते समय कवि न तो पदों को मिला दे और न समस्त पदों को पृथक् करे और आख्यात या क्रिया-पदों को विकृत भी न करे. कवि इस प्रकार कविता का पाठ करे कि वह चरवाहों से लेकर स्त्रियों तक को रुचिकर प्रतीत हो.

निश्चय ही उस दिन सतना के साहित्योत्सव में पंडित सुधाकर शर्मा का काव्यपाठ आचार्य राजशेखर के निर्देशानुसार ही हुआ था. एक एक गीत के बिम्ब आंखों के सामने उपस्थित होते जा रहे थे. ‘मैं गोरी गोरी सोयी थी’ को पढ़ते समय पण्डित जी की मुखमुद्रा ऐसी थी कि पर्यंक पर पौढ़ी गोपांगना का दृश्य उपस्थित हो उठा और जब उनके मुख से ‘जागी तो हो गयी साँवरी’ पद उच्चरित हुआ, तो हाथ की उंगलियों की थिरकन, पुत्तलियों का नर्तन और वाणी की सांगीतिक मूर्च्छनाएँ ऐसी चमत्कृत कीं कि मैं थोड़ी देर के लिए सतना के उस साहित्योत्सव से उठकर महाकवि शुद्रक के कालखण्ड में पहुंच गया. मेरे भीतर का चारुदत्त जागृत हो उठा. वस्तुतः पण्डित सुधाकर शर्मा के काव्यपाठ में कविता और शास्त्रीय संगीत की युगलबंदी का ऐसा अद्भुत समन्वय है कि रसिक को एक साथ सरस्वती के मुख से निःसृत शब्द-निर्झरिणी और उनकी वीणा से निकली स्वर-स्यन्दिनी का साक्षात्कार होता है. कुल मिलाकर पण्डित सुधाकर शर्मा का उस दिन का काव्यपाठ किसी इन्द्रजाल से कम नहीं था. मैं पहली ही मुलाकात में पण्डित सुधाकर शर्मा के स्नेह-रज्जु से ऐसा बँधा कि आज तक उससे छूट नहीं पाया.  

पण्डित सुधाकर शर्मा एक लम्बी साहित्यिक-सांस्कृतिक यात्रा पर निकले. दतिया, चिरगांव, चित्रकूट, प्रयागराज आदि की परिक्रमा करते समय चित्रकूट में ही उनके मानस-पटल पर उस ‘मन्थरा’ का काव्यांकुरण हुआ, जिसके बीज उनके हृदय में अयोध्या-प्रवास के समय स्वयं सरयू मैया ने रोपे थे. मुझे भली-भाँति स्मरण है कि  अहरौरा की उपत्यका में पण्डित सुधाकर शर्मा ने मन्थरा का एक दुर्मिल छन्द रचा, जो अपने लालित्य के कारण आज भी मुझे कण्ठस्थ है-रघुवंशशिरोमणि चारु चरित्र, सिया शुचि सत्य सनेह सने.. . . .

वस्तुतः यह सवैया दाम्पत्य के सर्वोच्च शिखर पर प्रतिष्ठित है. प्रीति की ऐसी पवित्रता, माधुर्य की ऐसी मनोहर भावाभिव्यक्ति, वस्तुतः एवं तत्त्वतः वह एक ऐसा समय था, जब पण्डित सुधाकर शर्मा को निमित्त बनाकर स्वयं सरस्वती प्रबन्धकाव्यों का सृजन कर रही थीं. पहले मंथरा, फिर पाषाणी, उसके बाद ‘रत्नावली’ और अन्त में ‘अश्वत्थामा’ का अवतरण हुआ. तीन प्रबन्ध स्त्री-चरित्र-केन्द्रित और चौथा प्रतिभा-पुत्र का मनोविश्लेषण.  

पण्डित सुधाकर शर्मा केवल कवि नहीं, एक जीवन्त सांस्कृतिक पुरुष हैं. उनके भीतर कविता और संगीत का, धर्म और अध्यात्म का, लोक और वेद का, तन्त्र और ज्योतिष का, समय और समाज का, इतिहास और राजनीति का विराट् समन्वय है. बाहर से देखने पर उनका व्यक्तित्व बिखरा बिखरा-सा है. उनके व्यक्तित्व के विविध आयाम हैं. वे कभी पत्रकार के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं, तो कभी संस्मरणकार के रूप में. कभी कवि-मंचों के सधे हुए कलाकार होते हैं, तो कभी हिन्दी-सिनेमा के गीतकार. कभी व्यंग्य के नश्तर से राजनीतिज्ञों की शल्य-चिकित्सा करते हैं, तो कभी गुप्त-बखरी में छिपे हिन्दी के चिरदानी को उजागर करते हैं. वस्तुतः उनका व्यक्तित्व उस खण्डित शिला की तरह दिखायी पड़ता, जो बाहर से अनगढ़ होते हुए भी अपने भीतर भगवान् की मूर्ति को सहेजे हुए है. पंडित सुधाकर शर्मा के इसी खण्डित व्यक्तित्व के भीतर एक ऐसी मूर्ति अन्तिर्निहित है, उनकी कविता-स्यन्दिनी के यही दोनों तट हैं. इन्हीं के भीतर उनके चिन्तन की स्रोतस्विनी प्रवाहित हुई है. उनके प्रबन्धकाव्यों में पारंपरिक कथा का पिष्टपेषण नहीं है. प्रत्येक काव्य एक मौलिक स्थापना के साथ प्रस्तुत हुए हैं.  

पंडित सुधाकर शर्मा का कवि-कर्म प्रेरित करता है. हृदय के सहज रूप की निश्छल अभिव्यक्ति ही सुधाकर की कविता का मूलमंत्र है. उनकी ‘मन्थरा’ स्त्री के ऊपर युगों युगों से लगाये गये कालुष्य का मार्जन करती है. ‘पाषाणी’ एक नये दृष्टिबोध के साथ स्त्री के चरित्र को विस्तृत आकाश प्रदान करती है. इसी तरह ‘रत्नावली’ की रत्ना अपने स्त्री-धर्म का पालन करते हुए युगकवि तुलसी से भी बड़ी हो जाती हैं.   प्रबन्ध-काव्य-चतुष्टयी का शास्त्रीय विश्लेषण करने का शिवसंकल्प ‘प्रबन्ध-सुधाकर’ में मुखरित हुआ है. वस्तुतः ‘प्रबन्ध-सुधाकर’ कोई आलोचना या समीक्षा का ग्रन्थ नहीं है. पंडित सुधाकर शर्मा के  कवि-कर्म की यह अन्तिम कसौटी नहीं है. उन्होंने जितना रचा है, उसका केवल एक अंशमात्र ही प्रकाशित है. अभी उनके कविर्मनीषी का सर्वश्रेष्ठ आना बाकी है. प्रकाशन की प्रतीक्षा में उनकी अनेक कृतियाँ अभी कवि-मन्दिर में ही हैं.


Web Title : PANDIT SUDHAKAR SHARMA A VIBRANT CULTURAL MAN, SPECIAL ON BIRTHDAY