देव, गुरू और धर्म, दुश्मनी के साथ कभी नहीं रह सकते-प्रवर पूज्य प्रवीण ऋषि म.सा.

बालाघाट. बालाघाट की पावन धरा पर पधारे उपाध्याय प्रवर पूज्य प्रवीण ऋषि म. सा. के प्रातः निकेतन मंे अनूठे प्रवचन और रात्रि मंे उत्कृष्ट विद्यालय में महावीर गाथा के श्रृंखलाबद्ध प्रवचन का सिलसिला लगातार जारी है.   इसी कड़ी में निकेतन और महावीर गाथा पर प्रचचन देते हुए प्रवर पूज्य प्रवीण ऋषि जी म. सा. ने बताया कि जब रिश्ते, निगेटिव और दुश्मनी के हो जाते है तब सूरज के उजाले में अंधियारा हो जाता है. यदि संभालने वाले व्यक्ति के होने के बावजूद वह संभालने से इंकार कर सकता है. यदि कोई व्यक्ति, समुद्र और नदी को पार करने नौका में बैठ जाये और किनारे में पहुंचने से पहले ही नौका से छलांग लगा ले, ऐसी नासमझी क्यों होती है, लेकिन रिश्ते जब निगेटिव और दुश्मनी के हो जाते है, तो व्यक्ति ऐसा करता है. दुश्मनी के रिश्ते महा भयंकार रिश्ते होते है. समुद्र को तीरना आसान है, कर्म का क्षय करना आसान है लेकिन दुश्मनी को समाप्त करना मुश्किल काम है. मोहिनी कर्म समाप्त होने के बाद भी, घाती कर्म समाप्त होने के बाद दुश्मनी समाप्त होगी, इसकी ग्यारंटी नहीं हैं, यदि किसी में ऐसा है तो वह, उसके पिछले कर्माे का परिणाम है और यदि आप ऐसा जीते होंगे तो संभाल जाना क्योंकि बैर के रिश्ते, स्वर्ग में नहीं ले जायंेगे ना ही मोक्ष ले जायेंगे बस वह तुम्हें नर्क ले जायेंगे.
    प्रवर पूज्य प्रवीण ऋषि म. सा. ने विश्वभूति और विशाखनंदी के प्रसंग को बताते हुए कहा कि भगवान महावीर को समझने बहुत गहरे जाना होता है, समाज में बैर से बंधे व्यक्ति, साधु, साध्वी के वंदन करने से इंकार करते है, उनके वंदन नहीं करने से साधु, साध्वी को दुःख नहीं होता है, बिना प्रयोजन भारी है, जब विश्वभूति की स्थिति को जानकार, परमात्मा के आंखो में आंसु थे. जब विश्वभूति ने इसका कारण पूछा तो भगवान महावीर ने कहा कि मैं तेरे दुःख से मुझे कोई दुःख नहीं, लेकिन तुझे, दुश्मनी से जो कर्म के फल लगेंगे, जो पीड़ा होगी,  मैं  उसे बचाने के लिए नहीं सकंुगा आ सकुंगा, यही सोचकर आंसु आ गये. यह होती है करूणा. उन्होंने कहा कि तुम्हें, विशाखनंद के साथ चलना है या परमात्मा के साथ चलना है. यह तय कर लो, क्योंकि देव, गुरू और धर्म, दुश्मनी के साथ कभी नहीं रह सकते है. यदि मन के अंदर में  दुश्मनी है तो देव, गुरू और धर्म सब बाहर रहेंगे और मन के अंदर खाली रहेगा.
    विश्वभूति ने मासखमन किया, पारणे किया, लेकिन जब भी उसे भाई विशाख नंदी की याद आती तो बिलख उठता, उसके प्रति मन में आक्रोश पनपता. उसमें तपस्या का तेज आ रहा था लेकिन समाधान नहीं है, फिर उसने सोचा कि जब तक गुरू नगरी में रहुंगा तब तक विशाखनंदी को भुल नहीं पाउंगा. जिससे द्रवित होकर विश्वभूति ने गुरू से नगरी के बाहर जाने की आज्ञा मांगी, ताकि वह विशाखनंदी को भुल जाये. परमात्मा ने कहा कि तु धरती को तो छोड़ जायेगा लेकिन विसाख नंदी को नहीं छोड़ पाया तो कहीं पर भी जाना काम नहीं आया. विश्वभूति नहीं माने और विहार किया. सालों बीत गये, याद आनी बंद हो गई, याद नहीं आना और अंदर विशाख नंदी का नहीं होना, दोनो अलग-अलग बाते थी. याद और अंदर बैर में अंतर है. परमात्मा कहते है कि अंदर में दुश्मनी मत रखो. एक बार विशाखनंदी को विश्वभूति के आने की जानकारी लगी. जो विश्वभूति को देखने के लिए बालकनी से देखने पहुंचा, देखा तो उसे विश्वभूति कमजोर दिखाई दिये. विश्वभूति जा रहे थे, रास्ते में एक गाय ने उन्हें धक्का दे दिया, वह लड़खड़ाकर गिरे पडे़. जो देखकर विशाख नंदी अट्हास करने लगा और कहा कि  कहां बल गया. विशाखनंदी का यह कहने से, विश्वभूति के अंदर रखी, उसके प्रति दुश्मनी की आग भड़क उठी, उन्होंने गाय को सिंग से पकड़कर विशाखनंदी तरफ उछाला. जिसे देखकर विशाखनंदी हक्का बक्का हो गया और भागने लगा, गाय तो बीच मंे गिर गई लेकिन विशाखनंदी के भीतर बैठा भय उसे हरपल डराता रहा कि गाय उसकी ओर आ रही है, जो विश्वभूति की बददुओं का असर था. व्यक्ति के जीवन में दुष्ट की बददुआ लगे ना लगे, साधु और मां-बाप की बददुआ कभी खाली नहीं जाती है. अंततः विश्वभूति ने संथारा ले लिया और प्रण किया कि यदि मेरी साधना का कोई दम, बल और पुण्य है, तो विशाखनंदी की मौत मेरे हाथो से होगी. जो विश्वभूति ने वचन लिया था कि कभी मन, वचन और काया से किसी को नहीं मारूंगा, चोट नहीं पहुचाउंगा, अब उसके मन में प्रतिशोध की आग चल चुकी थी. विश्वभूति की यह संवेदना गुरू के पास पहुंची कि विश्वभूति, आग में जल रहा है, गुरू पहुंचे, विश्वभूति को कहने लगे कि विश्वभूति, अपनी पूरी जिंदगी की तपस्या को आग में जला रहा है, क्यों किसी की मौत बनने की प्रतिज्ञा कर रहा है, तेरा यह संकल्प तुझे नर्क में ले जायेगा. विश्वभूति के मन से शब्द निकले, गुरू, बहुत प्रयास किया तपस्या की और दूर चला गया, पर अब नहीं है, नर्क मिल जाये, चलेगा. विशाखनंदी को छोडुंगा नहीं. परमात्मा ने कहा कि, गुरू कब हरता है, गुरू जब हरता है, व्यक्ति का सौभाग्य हर जाता है, गुरू जीतता है तो दुर्भाग्य हारता और सौभाग्य जीतता है, इसलिए हम संकल्प ले कि कभी गुरू को हारना ना पड़े. गुरू ने बहुत कहा पर विश्वभूति ने स्वीकार नहीं किया है, आयुष्य पूर्ण कर देवलोग गये. दिल से निकली बद्दुआ, असर करती ही है. किसी को कभी मजबूर नहीं करना कि वह तुम्हें बद्दुआ दे जाये. रामायण में यह उल्लेख है कि श्रवण कुमार के माता-पिता ने दशरथ को बददुआ दी थी. आज हम बेटे को तरसकर जा रहे है अंतिम समय में तेरे पास कोई नहीं होगा.
    विश्वभूति की बददुआ से विशाखनंदी को गाय का डर सताता रहता था, एक बार एक योगी ने उसे सलाह दी कि क्षमा मांग ले. पर विशाखनंदी ने कहा कि मर जाउंगा पर विश्वभूति से क्षमा नहीं मांगुगा. यदि कभी क्षमा का अवसर आये तो यह मत सोचना कि क्षमा के लिए शब्द नहीं है, क्योंकि जीवन में सत्ता और संपति यही छूट जायेगी और दुश्मनी की आग जलते रहेगी. डर से विशाखनंदी दिन-ब-दिन सुखकर कांटा हो गया है, चैन नहीं, नींद नहीं, भुख नहीं, वह तड़पता रहा और आयुष्य पूर्ण होते ही वह  देवलोक चला गया. जीवन में यदि अपना उद्धार करना हो तो दुश्मनी को हमेशा के लिए मिटा दो.


Web Title : GOD, GURU AND DHARMA CAN NEVER LIVE WITH ENMITY.