पयूर्षण शब्द का अर्थ है आत्मा के समीप निवास करना-पूज्य श्री विरागमुनि जी म.सा., पर्वाधिराज पयूर्षण पर्व-सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व

बालाघाट. जैन समाज के पर्वाधिराज पयूर्षण पर्व 13 अगस्त से प्रारंभ हो गये है. इस अवधि में दिव्य तपस्वी महासाधक पूज्य गुरूदेव श्री विराग मुनि जी म. सा., स्नेह नगर में एक निजी स्थल पर प्रवचन और आराधना कर रहे है.  इसी कड़ी में 13 अगस्त को पूज्य गुरूदेव श्री विराग मुनि जी म. सा. ने बताया कि पयूर्षण पर्व में आराधना, कर्म को भेदने के लिए अचूक दवा है. आत्मा के संपूर्ण प्रदेश में धर्म शासन आ जायेगा तो मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर होंगे. गुरूदेव ने बताया कि पयूर्षण शब्द का अर्थ है आत्मा के समीप निवास करना. परि यानी चारों ओर से, उषण यानी धर्म आराधना में रहना. हमारा लक्ष्य सदैव विरति का होना चाहिए, भले ही हम वैराग्य धारण नही कर सके किन्तु हद्रय में वैराग्य रहना चाहिये.

गुरूदेव ने बताया कि पयूर्षण पर्व में प्रारंभ के सात दिन हमें स्वयं को टटोलना है, आठवे दिन महापर्व सवंत्सरी पर्व जिसमें पुरूषार्थ और नवमें दिन परिणाम. उन्होंने गृहस्थ के पांच कर्तव्य अमारी प्रवर्तन, साधर्मिक भक्ति, क्षमापना, अठ्म तप और चैत्य   परिपाटी को विस्तृत रूप से बताया. गुरूदेव ने बताया कि प्रथम कर्तव्य अमारी प्रवर्तन के इन दिनों धर्म आराधना करना और दूसरों से भी कराना, दूसरों को तकलीफ एवं पीड़ा न पहुंचे, हिंसा न हो, लिलोती का त्याग आरंभ एवं संभारम कम से कम, प्रवास त्याग, कच्चे पानी का त्याग, पापों से निवृत्ति. गुरूदेव ने पर्व पयूर्षण में कुमार पाल राजा का दृष्टांत विस्तार से बताते हुए कहा कि वे जन्म से जैन नही थे किन्तु आचार्य हेमचंद्र जी से जैन धर्म स्वीकार करने के बाद उन्होने जीव दया का महत्व समझा. दया धर्म के मूल को समझा. उन्होंने बताया कि करूणामय हद्रय धर्म आराधना के योग्य एवं सक्षम बनता है. कुमार पाल राजा ने बलीप्रथा बंद करवाई, कत्लखाने बंद करवाए, वे जीव दया प्रतिपालक थे. हमें जीवों की विराधना से बचना है. हमें अभक्ष, जमीन कंद, रात्रि भोजन आदि का त्याग करना है. हम स्वयं के सर्वज्ञ हैं, हमे स्वयं अपने अवगुणों दोषों को सावधानी से देखना है और उन्हें निकालने एवं कमजोर करने पुरूषार्थ करना है. हमारे अंदर के अवगुण दूर होंगे तभी अंदर के गुण प्रकट होंगे. गुरूदेव ने बताया कि आराधक की श्रेणी में आने के लिए उत्कृष्ट कार्य करने है. निश्चित ही परिणाम भी उत्कृष्ट होंगे.  

गुरूदेव ने बताय कि जैन शासन में केवलज्ञान की बहुत महत्ता बताई गई है. केवलज्ञान आए बगैर मुक्ती संभव नही है. जैन धर्म में केवलज्ञान, सरल एवं सहज है. आपने, मदन रेखा, चंदनबाला जी, मृगावती जी के जैसे दृष्टांत बताये. इन दिनों गृहस्थ को भी साधु जैसे जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए. गुरूदेव ने बताया कि 6 काय के जीवों की हिंसा से बचना चाहिए. शत्रु व्यक्ति नही होता है, अपितु शत्रु कर्म होते है. अल्पतम द्रव्य वापरना चाहिए. प्रतिकुलता में समाधि रखने का प्रयास करें तभी सत्व प्रकट होगा.

गुरूदेव ने दूसरा कर्तव्य साधर्मिक भक्ति को लेकर बताया कि एक तरफ सारा धर्म दूसरी ओर साधर्मिक भक्ति बराबर है. बल्कि साधर्मिक भक्ति ज्यादा श्रेष्ठ. साधर्मिक भक्ति अद्भूत है. धर्म से जुड़े साधर्मिक व्यक्ति की सेवा अहोभाव एवं आदरभाव से करनी चाहिए. जो सामाजिक जीवन नही जी पा रहे हैं, वे वात्सल्य के पात्र है. गुरूदेव ने भरत महाराजा का दृष्टांत बताया. साधर्मिक भक्ति से धर्म से विमुख व्यक्ति भी चारित्र लेने की स्थिति मंे आ जाता है. साधर्मिक व्यक्ति के गुरूदेव ने विजय सेठ, विजया सेठानी, झगडुसाव, पुनिया श्रावक सोमचंद सेठ आदि के दृष्टांत उदाहरण स्वरूप बताए. गुरूदेव कहते हैं प्रत्येक सक्षम परिवार एक परिवार को गोद ले तो वह साधर्मिक भक्ति का श्रेष्ठ कार्य होगा. साधर्मिक के मान-सम्मान का ख्याल भी रखें, उसे स्वालंबी बनाए न कि दया का पात्र. साधर्मिक को धर्म से जोड़ने वाले को पहला वंदन. यह कार्य उत्कृष्ट  आलंबन देता है.

गुरूदेव ने तीसरा कर्तव्य क्षमापना के बारे में बताया कि यदि किसी के प्रति हमारे मन में द्वेष है तो आराधना सच्ची एवं वास्तविक नही. हमें मन, वचन, काया और हद्रय से क्षमायाचना करनी चाहिए. 84 लाख योनी के जीवों से क्षमायाचना करनी है. क्षमापना मतलब सभी जीवों से मैत्री भाव. किसी भी जीव के प्रति दुर्भावना नहीं आनी चाहिए. क्रोध के निमित्त से बहुत बचना है. क्रोध, अग्नि का काम करता है. भगवती सूत्र का सरलमंत्र है, सारा दोष स्वयं स्वीकार करें.

गुरूदेव ने चौथा कर्तव्य अठ्म तप के बारे में बताया कि पर्व पयूर्षण में सवंत्सरी महापर्व के निमित्त तीन उपवास अवश्य करने चाहिये. आहार संघणा कमजोर करें, कम से कम द्रव्य उपयोग करें और आत्मा के निकट रह कर साधना-आराधना करें.  गुरूदेव ने पॉचवा कर्तव्य चैत्य परिपाटी के बारे मंे बताया कि गांव में जितने भी जिन मंदिर हैं जाकर दर्शन करें. परमात्मा के दर्शन पूजन से भय संघणा दूर होते हैं एवं निर्भयता आती है. संसार परिभ्रमण से मुक्ति मिलती है. आठ कर्मो का क्षय होता है. आठ संघणा भी दूर होती है. सबसे मैत्री भाव रखते हुए एवं आत्म जागृति रखते हुए इन दिनों आराधना करनी चाहिए.


Web Title : THE WORD PURUSHAN MEANS TO LIVE CLOSE TO THE SOUL PUJYA SHRI VIRAGMUNI JI M.S.A., PARVADHIRAJ PARURSHAN PARVA THE MOST IMPORTANT FESTIVAL