मोक्ष के लिए किसी भी जीव के साथ क्लेश ना करे-पूज्य श्री विरागमुनि जी म.सा.

बालाघाट. जिले में चातुर्मास के लिए पधारे प्रवर पूज्य गुरूदेव श्री विनय कुशल मुनि जी म. सा. के शिष्य दिव्य तपस्वी महासाधक पूज्य गुरूदेव श्री विराग मुनि जी म. सा. प्रतिदिन स्वाध्याय और प्रवचन दे रहे है. इसी कड़ी में 07 अगस्त का पूज्य गुरूदेव ने बताया कि किसी भी जीव के साथ क्लेश नही करना चाहिए, क्योंकि जीव में कौन सी आत्मा है यह हम जानते नहीं है. परमात्मा के वचनों के एक एक शब्द का मर्म समझकर  तत्वों को खोलना एवं विश्लेषण करना चाहिए, जो भविष्य में समाधि के काम आये. लोगस्स शाष्वत सूत्र है, जब तक लोगस्स सूत्र का अर्थ नही समझेंगे तब तक परमात्मा के प्रति बहुमान नही आएगा. लोगस्स सूत्र में 24 तीर्थंकर भगवन्तों की स्तुति है.

गुरूदेव ने तीर्थंकरों के बारे में बताया कि प्रथम तीर्थंंकर भगवान आदिनाथ की माता ने स्वप्न में सबसे पहले वृषभ देखा था इसलिए उनका नाम ऋषभ रखा गया था. इसी प्रकार दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ, जिन्होने अभ्यंतर शत्रु को जीत लिया था एवं आठ कर्मो को पराजित किया था. इसलिए उनका नाम ‘अजित‘ रखा गया. तीसरे तीर्थंकर संभवनाथ जी अर्थात सम-भव जिनके जन्म के समय असंभव कार्य भी संभव हो गया. सभी क्षेत्रों में समता एंव संपन्नता बढी इसलिए नाम ‘संभव‘ रखा गया. चौथे तीर्थंकर अभिनन्दननाथ जी माता ने स्वप्न में देवताओं को स्तुति करते देखा था जिनकी स्तुति से भी जीवों को आनन्द की अनुभूति हो रही थी, इसलिए ‘अभिनन्दन‘ नाम रखा गया. पांचवे तीर्थंकर सुमतिनाथ नाम, उनके गुणों के कारण रखा गया. छटवें तीर्थंकर पदमप्रभु जी जिनका शरीर जन्म से कमल के समान सुंदर, अद्भुत हवा भी स्पर्श से सुगंधित हो जावे, माता को स्वप्न में कमल शैया में सोने का मन हुआ इसलिए ‘पदम‘ नाम रखा गया. सातवे सुपार्श्व नाथ जी जिनके पीठ के पीछे का भाग अत्यंत सुंदर  होने से सुपार्श्व नाम रखा गया एवं आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु जी का शरीर चंद्रमा के समान सुंदर सौम्य एवं शीतलता देने वाला एवं माता को स्वप्न में मुख में चन्द्रमा को प्रवेश करते देखा इसलिए ‘चन्द्रप्रभु‘ नाम रखा गया. इस प्रकार प्रथम तीर्थंकर से लेकर आठवे तीर्थंकर के विशेष  गुणों को हमने देखा. तीर्थंकरों मे अनंत गुण होते है.

स्वाध्याय के पश्चात गुरूदेव ने प्रवचन देते हुए चरम तीर्थंकर भगवान महावीर के अनछुए पहलुओं को विस्तार से समझाते हुए बताया कि  नयसार द्वारा किसी साधु, संत, भिक्षुक को भोजन कराने के बाद भोजन करने के अहोभाव ने नयसार को तीर्थंकर महावीर बना दिया. प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के कार्यकाल में भगवान महावीर के जीव ने भरत महाराजा के पुत्र मरिची के रूप में जन्म लिया था. समवशरण में जब भगवान ऋषभ देव उपदेश दे रहे थे तो भरत महाराजा ने भगवान से पूछा प्रभु इस समय यहां कोई तीर्थंकर का जीव है क्या? तब भगवान ने बताया समवशरण के बाहर मरिची नाम का जो साधु है, वह चक्रवर्ती वासुदेव और अंत में तीर्थंकर बनेगा. भगवान अंतिम भव में देवानंदा की कुक्षी में पधारे एवं 82 दिन देवानंदा के गर्भ में रहे. पश्चात् देवों ने भगवान के गर्भ को देवानंदा की कुक्षी से माता त्रिशला की कुक्षी मंे स्थानांतरित किया एवं चैत्र सुदि 13 को भगवान का जन्म हुआ. इन्द्र महाराज ने अपने पांच रूप बनाकर भगवान को मेरूशिखर ले जाकर अभिषेक किया. जहां करोड़ों देवों ने भी भगवान का अभिषेक किया. पश्चात् देवों द्वारा बनाए पालने में माता त्रिशला के पास रख दिया. माता त्रिशला को देख भगवान शिशु रूप में मुस्कराकर माता को अभिभूत कर दिया. माता अत्यन्त प्रसन्न हो गई यह घटना लौकिक नही अपितु अलौकिक थी. बाल्य अवस्था में भगवान ने साधना आराधना के लिए कदम बढाया. युवावस्था में आहार संघणा खत्म कर तपस्या प्रारंभ की किन्तु माता त्रिशला के निवेदन को स्वीकार कर औचित्य पालन कर आहार ग्रहण किया. माता के स्नेहराग-वात्सल्य को देख माता को सुखशांति एंव समाधि दी, कर्तव्य पालन किया किन्तु अलिप्त रहे. आहार ग्रहण करते समय बाहर प्रसन्नता किन्तु अंदर उदासीनता. माता कहती है कि प्रभु जन्म से अवधिज्ञाता हो आप तीन लोक के नाथ, विश्व के तारणहार किन्तु यह मां का हद्रय है मैं तुम्हे आर्शीवाद देती हुॅं. इसकी उपेक्षा मत करना. दूसरी तरफ माता त्रिशला प्रभु से निवेदन करती है, हे वर्धमान आप तीन लोक के नाथ बनों न बनों किन्तु मेरे नाथ जरूर बनना, मेरा आत्मोत्थान, हो मेरी आत्मा का कल्याण हो, मुझे भी मोक्ष मार्ग मिले. माता त्रिशला एक तरफ आर्शीवाद भी देती है दूसरी तरफ आशीर्वाद की याचना भी करती है. माता-पिता के निवेदन पर वर्धमान कुमार ने यशोदा के साथ विवाह के लिए स्वीकृति दी. यशोदा में वर्धमान कुमार से विवाह के लिए अत्यंत राग था. वर्धमान की स्वीकृति से जहां प्रसन्नता थी, वहीं शंका भी थी कि नेमकुमार-राजुल जैसे प्रसंग भी न बने. वर्धमान कुमार का यशोधा से विवाह होने के बाद एक पुत्री प्रियदर्शना का जन्म हुआ. भगवान ने गर्भ में ही संकल्प लिया था कि माता-पिता के जीवित रहते चारित्र ग्रहण नही करूंगा. माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् भाई नंदीवर्धन के निवेदन पर दो वर्ष पश्चात् दीक्षा ली तथा लोकांतिक देवों ने भी प्रभु से दीक्षा लेने विनती की. भगवान ने पंचमुष्ठी लोच कर दीक्षा ली, जिसे देखकर सारी जनता क्रंदन कर रही थी, सभी आर्शीवाद की याचना भी करती है. माता पिता के निवेदन पर भगवान ने यशरो रहे थे कि वर्धमान कुमार सारा वैभव छोड़ चारित्र ग्रहण कर रहे हैं, इन्द्र महाराजा ने निर्देश दिए कि सभी मौन रहे कोई अमंगल न हो. भगवान महावीर ने अकेले ही दीक्षा ली. भगवान जंगल की ओर विहार करते समय नजर नीचे तथा पलक भी नही झपकते थे. कारण किसी जीव का हिंसा न हो.  


Web Title : DO NOT QUARREL WITH ANY LIVING BEING FOR SALVATION PUJYA SHRI VIRAGMUNI JI M.S.